विज्ञान अनसोल्व पेपर 2021
Science Unsolved Paper 2021
Set 1 (824 HX)
खण्ड-ग
9. (क) जल में घुलनशील विटामिन है
(i) विटामिन D
(ii) विटामिन C
(iii) विटामिन A
(iv) विटामिन K
उत्तर (ii) विटामिन C
(ख) बोमेन सम्पुट किसका भाग होता है?
(i) उदर का
(ii) यकृत का
(iii) अग्न्याशय का
(iv) वृक्क का
उत्तर (iv) वृक्क का
(ग) आवृतबीजी पौधों में नर जनन अंग होते हैं
(i) जायांग
(ii) पुमंग
(iii) बीजांड
(iv) पराग नलिका
उत्तर- (ii) पुमंग
(घ) निम्नलिखित में से डार्विन के प्राकृतिक वरणवाद का सिद्धांत नहीं है
(i) जीवन संघर्ष
(ii) योग्यतम की उत्तरजीविता
(iii) अंगों का उपयोग और अनुपयोग
(iv) नई जातियों की उत्पत्ति
उत्तर- (iii) अंगों का उपयोग और अनुपयोग
10. (क) समयुग्मजी तथा विषमयुग्मजी में अंतर बताइए।
(ख) नर तथा मादा मनुष्य में गुणसूत्रों की संख्या और प्रकार बताइए।
उत्तर- मनुष्य की जनन कोशिकाओं में 46 गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 23 जोडे नर तथा मादा दोनों में समान होते है अत: इन्हें आँटोसोम्स (autosomes) कहते हैं।
46 में 44 दैहिक गुणसूत्र है जो दैहिक लक्षण निर्धारित करते हैं तथा 2 लिंग गुणसूत्र हैं जो लिंग लक्षण निर्धारित करते हैं।
(ग) मेंडल ने मटर के पौधे पर अपने प्रयोग के दौरान सात जोड़ी विपर्यासी लक्षणों को चुना। इसमें तने की लम्बाई तथा फली का रूप का प्रभावी तथा अप्रभावी लक्षण बताइये।
उत्तर - तने की लंबाई का प्रभावी लक्षण "लंबा" तथा अप्रभावी लक्षण बौना है तथा
फली का रूप का प्रभावी लक्षण "कक्षीय " तथा अप्रभावी लक्षण शीर्षस्थ है
11. (क) मनुष्य में किन्हीं दो लिंग-सहलग्न रोग की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- मनुष्य में दो लिंग सहलग्न रोग निम्नलिखित हैं
1. वर्णान्धता (Colourblindness) - इस रोग की खोज होरनर (Horner) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1876 में की थी। इस रोग में व्यक्ति लाल तथा हरे रंग की पहचान करने में असमर्थ होता है। इसे प्रोटेन दोष या डैल्टोनिज्म (daltonism) लाल-हरा अन्धापन (red-green blindness) कहते हैं। सर्वप्रथम विल्सन (Wilson, 1911) ने इस रोग के अप्रभावी जीन की खोज की थी। यह अप्रभावी जीन (recessive gene) 'X' गुणसूत्र पर स्थित होता है। 'Y' गुणसूत्र पर इसके युग्मविकल्पी का अभाव होता है। अतः पुरुषों में वर्णान्धता X गुणसूत्र पर स्थित अप्रभावी जीन के कारण विकसित हो जाती है। स्त्रियों में वर्णान्धता का लक्षण तभी प्रकट होता है जब दोनों अप्रभावी जीन उपस्थित होते हैं अन्यथा स्त्री रोग के वाहक का कार्य करती है।
2. हीमोफीलिया (Haemophilia)- इस रोग की जानकारी सबसे पहले हैल्डेन (Haldan) नामक वैज्ञानिक को इंग्लैण्ड (England) के राजघराने में मिली थी। इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) की कुछ सन्तानों में इस रोग का जीन उपस्थित था। ऐसा मानते हैं कि यह लक्षण उत्परिवर्तन के परिणामस्वरूप विकसित हुआ। यह रोग भी वर्णान्धता के समान अधिकतर पुरुषों में अधिक मिलता है। यह भी 'X' सहलग्नी अप्रभावी (X linked recessive) रोग है अर्थात् इसका जीन 'X' गुणसूत्र पर स्थित होता है। इससे सम्बन्धित जीन को एन्टीहीमोफिलिक ग्लोब्यूलिन जीन (antihaemophilic globulin gene or AHG gene) कहते हैं। यह रक्त स्कन्दन के VIII, IX या XI वें कारकों के संश्लेषण का संदमन करती है। Y-गुणसूत्र पर इसका युग्मविकल्पी (allele) नहीं होता है। अत: पुरुषों में केवल एक ही X-गुणसूत्र पर अप्रभावी जीन होने पर यह रोग उत्पन्न हो जाता है। लेकिन स्त्रियों में दोनों X-गुणसूत्रों पर हीमोफिलिया के अप्रभावी जीन (recessive gene of haemophilia) का होना आवश्यक है।
अथवा
ओपेरिन के जीवन की उत्पत्ति का जीव-रसायन उद्भव परिकल्पना को समझाइए।
उत्तर - औपैरिन के मत के अनुसार जीवन की उत्पत्ति सर्वप्रथम समुद्र में हुई। यह बहुत ही धीमी प्रक्रिया के रूप में जीव रसायन (biochemical) के रूप में उत्पन्न हुई जो कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों के हजारों वर्षों में अभिक्रिया से बना। ओपैरिन के सिद्धान्त का समर्थन इस बात से मिलता है कि जीवों के जीवद्रव्य में उपस्थित सभी तत्व एवं यौगिक जैसेहाइड्रोजन, अमोनिया, कार्बन, गन्धक, फास्फोरस, और जल सभी कुछ समुद्र में उपस्थित थे। इस प्राथमिक पदार्थों से जटिल पदार्थों, जैसे- एथेन, प्रोपेन, ब्यूटेन एथिलीन, एसिटिलीन, और एल्कोहल का निर्माण हुआ। इन्हीं यौगिकों ने पराबैंगनी किरण तथा एक्स किरणों के विद्युत विसर्जन द्वारा जी उत्पत्ति के आवश्यक अवयव जैसे शर्करा, ग्लिसरीन, वसा अम्ल (Fatty acids) अमीनो अम्ल, लैक्टिक अम्ल पिरीमिडीन, प्यूरीन का निर्माण किये। ये सरल यौगिक तुलनात्मक जटिल यौगिकों जैसे न्यूक्लिक अम्ल ATP जटिल शर्करा इत्यादि के निर्माण में जुट गए। यही न्यूक्लियोप्रोटीन उत्परिवर्तन (Mutation) के फलस्वरूप नये-नये न्यूक्लिओ प्रोटीन अथवा पोलीपेप्टाइड का निर्माण किये और इस तरह प्रथम सजीव कोशिका का निर्माण हुआ। यह सजीव लक्षण सर्वप्रथम विषाणुओं में पाया गया इसलिए इस न्यूक्लियो प्रोटीन को प्रारंभिक जीव की संज्ञा दी गई।
ये न्यूक्लियोप्रोटीन आकार में बड़े होकर कोयसरवेट (Coacervate) का निर्माण किये और इसके ऊपर चारों तरफ पारगमन झिल्ली (Permeable membrane) का निर्माण हो गया। यह अवस्था कोशिका निर्माण की प्रथम अवस्था कहलाती है। इसके पश्चात धीरे-धीरे कोशिका के अन्य कोशिकांग विकसित होने लगे। इन कोशिकाओं में विभिन्न कार्यों के लिए विभाजन शुरू हुआ जिससे साधारण कोशिका से जटिल कोशिका का निर्माण हुआ, यही प्रक्रिया जैव-विकास कहलाती है।
(ख) लैमार्कवाद की व्याख्या कीजिए।
उत्तर - फ्रांसिसी वैज्ञानिक जीव बेप्टिस्ट डि लेमार्क (Jean Baptiste de Lamarck, 1744-1829) ने जैव विकास की प्रक्रिया सम्बन्ध में पहला तर्क संगत सिद्धान्त प्रस्तुत किया था। लेमार्क ने “फिलोसोफी जुलोजिक' नामक पुस्तक लिखी जो 1809 में प्रकाशित हुई। लेमार्कवाद को उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह सिद्धान्त निम्न अवधारणाओं पर आधारित है |
- जीवों के शरीर तथा अंगों के आकार में वृद्धि होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
- वातावरण में होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव से जीवों की शारीरिक संरचना में परिवर्तन होता रहता है एवं शरीर के अंगों का विकास होता है।
- जन्तु जिन अंगों का अधिक उपयोग करता है, वे अंग अधिक विकसित हो जाते हैं, तथा जिन अंगों को कम उपयोग होता है वे ह्वासित होने लगते हैं एवं अन्त में विलुप्त हो जाते हैं।
- वातावरण के प्रभाव से या अंगों के कम अथवा अधिक उपयोग से जो परिवर्तन शरीर में हो जाते हैं उन्हें उपार्जित लक्षण (Acquired Character) कहते हैं। ये लक्षण अगली पीढ़ी में चले जाते हैं, अर्थात उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है। पीढ़ी दर पीढी लक्षणों का समावेश होता रहता है, और अन्त में नई जाति बन जाती है। अपने सिद्धान्त को प्रमाणित करने के लिये लेमार्क ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं -
1. जिराफ की लम्बी गर्दन- लेमार्क के अनुसार अफ्रीका के वनों में पाया जाने वाला जिराफ लाखों वर्षों पूर्व एक साधारण हिरण के समान जन्तु था। उस समय वहाँ घास का हरा भरा मैदान था, बाद में मरूस्थलीय वातावरण के बदले प्रभाव एवं अन्य वातावरणीय कारणों से वहाँ घास की कमी हो गई, जिससे जिराफ को पेड़ों की पत्तियों पर निर्भर होना पड़ा। भोजन के लिये जिराफ को अगली टांगों को अधिक ऊँचा रखते हुए गर्दन को निरन्तर ऊपर खींचना पड़ता था। जिराफ ने पेड़ों की पत्तियों तक पहुँचने के लिये अगली टांगे और गर्दन लम्बी होती गई और पीढ़ी दर पीढी वंशागत होकर वर्तमान जाति का स्थाई लक्षण बन गया।
2. सर्पो में पैर का न होना- लेमार्क के अनुसार प्रारम्भिक काल में सर्पो के पैर होते थे, किन्तु भमिगत जीवन के लिये एवं बिलों में घुसने के लिये पैर बाधक होते थे एवं उपयोग न के बराबर होता था। अतः धीरे-धीरे ये छोटे होकर अन्त में विलुप्त हो गये।
3. जलीय पक्षियों में जलयुक्त पाद- बत्तखों तथा दूसरे जलीय पक्षियों में पानी में तैरने के लिए इनके पादों की ऊगलियों के बीच की त्वचा तनी रहती थी जिसके कारण जालयुक्त पादों का निर्माण हुआ।
4. कर्णपल्लव की पेशियाँ- खरगोश, गाय, हाथी, कुत्ते आदि में कर्णपल्लव पेशियां अधिक विकसित होती हैं क्योंकि ये जन्त इनका अधिक उपयोग करते हैं, किन्तु मनुष्य में ये ह्वासित हो गई क्योंकि इनका उपयोग नहीं किया जाता है।
अथवा
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए:
(i) यकृत के कार्य
(ii) वसा में घुलनशील विटामिन्स
उत्तर-(i) यकृत के कार्य
1. यकृत कोशिकाएँ हिपेरिन नामक पदार्थ का स्राव करती हैं जो रुधिर वाहिनियों में रुधिर को जमने से रोकता है।
2. आमाशय रस के अम्ल को प्रभावहीन करने के लिए पित्त बनाता है और भोजन को क्षारीय बनाता है।
3. पचे हुए अवशोषित प्रोटीन को पेप्टोन तथा ऐमिनो एसिड के रूप में संचित रखता है।
4. वसा का पायसीकरण पित्त रस के द्वारा होता है।
5. यकृत शरीर के संचरण का एक तिहाई रुधिर संचरित करता है।
6. यकृत में फाइब्रिनोजन का निर्माण होता है जो रुधिर को जमाने में सहायता देता है।
(ii) वसा में घुलनशील विटामिन्स - वसा में घुलनशील विटामिन्स निम्नलिखित हैं- विटामिन A, विटामिन D, विटामिन E तथा विटामिन K
12. अग्न्याशय द्वारा स्रावित होने वाले विभिन्न विकरों के कार्य समझाइए। मधुमेह बीमारी पर एक टिप्पणी भी लिखिए।
उत्तर - अग्न्याशय द्वारा स्रावित होने वाले तीन विकर (एन्जाइम) निम्नलिखित हैं-
1. एमाइलोप्सिन या एमाइलेज, 2. लाइपेज या एसीएप्सिन तथा 3. ट्रिप्सिन।
1. एमाइलोप्सिन या एमाइलेज-कार्बोहाइड्रेट्स का जो भाग मुखगुहा में लार के प्रभाव से बच जाता है वह इस एंजाइम के प्रभाव से शक्कर में बदल जाता है।
2. लाइपेज या स्टीएप्सिन - यह वसा को वसा अम्लों में परिवर्तित कर देता है जो रुधिर तथा लसीका द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं।
3. ट्रिप्सिन - यह भोजन के प्रोटीन वाले अंश को पचाकर ऐमिनो एसिड में बदल देता है।
मधुमेह (Diabetes Mellitus) - अग्न्याशय के लैंगरहेन्स के समूहों की कोशिकायें इन्सुलिन नामक हारमोन बनाती हैं। यह हारमोन ग्लूकोज के उपापचय का नियंत्रण करता है। रुधिर में सामान्य स्तर से अधिक ग्लूकोज होने पर उसे ग्लाइकोजन में बदलने की क्रिया इन्सुलिन के प्रभाव से होती है। अगर अग्न्याशय ग्रन्थि में इन्सुलिन कम बनने लगता है तो रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा बहुत बढ़ जाती है और मूत्र के साथ ग्लूकोस आने लगता है। इसे मधुमेह रोग कहते हैं।
अथवा
श्वासोच्छ्वास तथा श्वसन में अन्तर बताइए। निश्वसन तथा निःश्वसन प्रक्रिया को विस्तार से समझाइये।
निश्वसन ( Inspiration)- वायु को फेफड़ों में भरना निश्वसन कहलाता है। मस्तिष्क के मेड्यूला में स्थित श्वसन केन्द्र द्वारा तंत्रिकीय निर्देश मिलते ही पेशी संकुचन से पसलियाँ आगे तथा ऊपर की ओर उठ जाती हैं। इसी समय डायाफ्राम नीचे की ओर दबकर चपटा हो जाता है। इसके कारण वक्षगुहा का आयतन बढ़ जाता है तथा फेफड़ों में वायुदाब कम हो जाता है। वायुदाब में कमी को पूरा करने के लिए शुद्ध वायु नासिका रन्ध्रों तथा श्वास नली से होकर फेफड़ों में भर जाती है।
निःश्वसन ( Expiration)- मस्तिष्क के मेड्यूला में स्थित श्वसन केन्द्र से तंत्रिकीय निर्देश प्राप्त होते ही पसलियाँ तथा डायाफ्राम अपनी सामान्य स्थिति में आ जाते है। वक्षगुहा का आयतन कम हो जाता है तथा फेफड़ों का दबाव बढ़ जाता है जिससे फेफड़ों की वायु बाहर निकल जाती है।
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