उद्देश्य: उत्तर मध्य-काल के किसी एक भारतीय गणितज्ञ (रामानुजन) का व्यक्तित्व एवं गणित में योगदान ।
श्रीनिवास रामानुजन
संसार में ऐसे अनेक गणितज्ञ हुए हैं, जिनके माता-पिता, मामा या दादा-नाना भी गणितज्ञ या गणित प्रेमी थे, परन्तु रामानुजन के पिता श्री निवास अय्यंगार कुंभकोणम् के एक गुजराती बनिए की कपड़े की दुकान पर मुनीम थे। माता कोमलामल धार्मिक स्वभाव की स्त्री थीं और नाना ईरोड के मुंसिफ अदालत में अमीन थे। इस प्रकार रामानुजन की प्रतिभा आनुवंशिक नहीं थी।
रामानुजन का जन्म ननिहाल ईरोड में एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में 22 दिसम्बर, 1887 ई. को हुआ। उन्होंने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवन में प्रारम्भिक 16 वर्ष कुम्भकोणम् में ही व्यतीत किए। रामानुजन धार्मिक प्रवत्ति और शान्त स्वभाव के चिन्तनशील बालक थे। उनके खपरैल की छत वाले पैतृक घर के सामने एक ऊँचा चतूबरा था, वह उसी चबूतरे पर बैठकर गणित के सवालों में खो जाते थे। रामानुजन का गणित के प्रति तीव्र आकर्षण था। विशुद्ध गणित के अलावा अन्य विषयों में जैसे गणितीय भौतिकी और उपयोगी गणित के विषयों में उनकी रुचि नहीं थी।
रामानुजन गणित की खोज को, ईश्वर की खोज के समान मानते थे। इसी कारण इन्हें गणित के प्रति गहरा लगाव था। वे रात-दिन संख्याओं के गुणधर्मों के बारे में सोचते, मनन करते रहते थे और सुबह उठकर कागज पर अक्सर सूत्र लिख लिया करते थे। उनकी याददाश्त और गणना शक्ति अद्भुत थी। वे √2, π, e आदि के मान हजारों दशमलव स्थानों तक निकालने में सक्षम थे।
रामानुजन ने 1903 ई. में हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्हें 1904 ई. में सुब्रमणियम छात्रवृत्ति मिली और F. A. की पढ़ाई के लिए राजकीय महाविद्यालय कुंभकोणम् में प्रवेश लिया। यहाँ पर गणित के अलावा दर्शन, इतिहास, अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की पढ़ाई होती थी। किन्तु इनका मन केवल गणित में ही लगा रहता था और इसके साथ ही कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण दुर्भाग्य से F. A. की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गये, परन्तु हताश और निराश हुए बिना ये अपनी गणितीय खोजों में लगे रहे। 1909 ई. में इनका विवाह 9 वर्ष की जानकी अम्मा के साथ हो गया।
कुम्भकोणम् छोड़ने के बाद रामानुजन का जीवन गरीबी में गुजरा। इसके बाद भी उनकी गणितीय प्रतिभा निखरती गयी। उनकी गणित की साधना चलती रही और उनकी नोटबुक के पन्नों पर गणित के अनेक विलक्षण सूत्र जुड़ते गये। गणित के सैकड़ों सूत्रों और प्रमेयों को वे अपनी 'डायरी' में नोट करते थे। कागज के अभाव में न स्लेट पर अभ्यास करते थे और केवल सूत्रों को डायरी में लिखते थे। उनके इस कार्य को उनकी मृत्यु के बाद 'रामानुजन की डायरी' के नाम से प्रकाशित किया गया है। बहुत-सी प्रमेय उन दिनों गणित की दुनिया के लिए नये थे और उनके कुछ सूत्र तो आज भी अबूझ पहेली बने हुए हैं। इन सूत्रों की उपपत्तियाँ प्रस्तुत करने में आज भी देश-विदेश के कई गणितज्ञ जुटे हुए हैं, और भविष्य में कई वर्षों तक जुटे रहेंगे।
1 मई, 1913 ई. को रामानुजन ने मद्रास विश्वविद्यालय में शोध छात्र के रूप में प्रवेश लिया और अपने शोध कार्य में जुट गये। उन दिनों विश्वविद्यालय में उस उच्च स्तर की शोध सामग्री उपलब्ध नहीं थी, जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। अतः उनके शुभचिन्तकों और विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उन्हें कैम्ब्रिज भेजने का विचार किया और प्रो. हार्डी से पत्र व्यवहार किया। प्रो. हार्डी, रामानुजन के शोध पत्रों से पहले से ही प्रभावित थे। अतः उन्होंने रामानुजन को कैम्ब्रिज बुलाने की योजना बनाई फलस्वरूप 17 मार्च, 1914 ई. को रामानुजन अपने माता-पिता एवं बहुत-से शुभचिन्तकों के आशीर्वाद के साथ लन्दन के लिए रवाना हो गये और 27 फरवरी, 1919 ई. तक कैम्ब्रिज में रहे। वहाँ उन्होंने हार्डी और लिटिल बुड के साथ कई विषयों पर शोध कार्य किया।
कैम्ब्रिज प्रवास के दौरान इनके 32 शोधपत्र विश्व के प्रसिद्ध जर्नल्स में प्रमुखता से छपे थे। सबसे बड़ा (63 पृष्ठ) शोध-पत्र अविभाज्य संख्याओं के बारे में है। 28 फरवरी, 1918 ई. का दिन बहुत ही स्वर्णिम दिन था, जब मात्र 30 वर्ष की आयु में वे FRS हो गये। 13 अक्टूबर, 1918 ई. को ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज के फेलो से सम्मानित हुए और लगभग 6 वर्ष के लिए $250 धनराशि का मानदेय भी दिया गया। जनवरी, 1919 ई. को Indian Mathematical Society द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया।
प्रारंभ से ही इनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। मई, 1917 ई. में पता चल गया था कि इनको तपेदिक हो गया है, जिसका इलाज इंग्लैण्ड के अस्पतालों में हुआ था। कुछ स्वस्थ होने पर मई, 1919 ई. को ये इंग्लैण्ड से मद्रास आ गये। लगभग 1 वर्ष तक इनका इलाज चलता रहा, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। अन्ततः अपने परिवार, के सदस्यों, मित्रों तथा शुभचिन्तकों के बीच 26 अप्रैल, 1920 ई. को 'चटपट' मद्रास में 32 वर्ष की छोटी आयु में भारत की इस महान प्रतिभा का अन्त हो गया। उनका जन्म, कर्म एवं मृत्यु अल्पकाल की एक चमत्कारिक घटना थी।
उनकी मृत्यु के बाद उस दौर के माक थीटा फंक्शन से सम्बन्धित हस्तलेख पहले मद्रास विश्वविद्यालय में जमा हुए थे, जो बाद में प्रो. हार्डी द्वारा वाट्सन के पास पहुँचे। डॉ. वाट्सन की मृत्यु के बाद रामानुजन के वे हस्तलेख ट्रिनिटी कॉलेज के ग्रन्थालय में जमा हुए। इस नोट बुक में रामानुजन ने लगभग 600 परिणाम प्रस्तुत किये हैं, परन्तु उपपत्ति नहीं दी है।
विस्कोसिन विश्वविद्यालय के गणितज्ञ डॉ. रिचर्ड आस्की लिखते हैं, -“मृत्युशैय्या पर लेटे-लेटे साल भर में किया गया रामानुजन का यह कार्य किसी बहुत बड़े गणितज्ञ के पूरे जीवन भर के कार्य के बराबर है। सहसा यकीन नहीं होता है कि उन्होंने अपनी उस दशा में यह कार्य किया। यदि किसी उपन्यास में ऐसा विवरण प्रस्तुत किया जाता, तो उस पर कोई भी विश्वास नहीं करता।"
रामानुजन की नोट बुकों की यह विरासत आगामी अनेक वर्षों तक देश-विदेश के अनेक गणितज्ञों के लिए शोध का विषय रहेगी और यह सर्वथा सत्य है कि रामानुजन को 'गणितज्ञों का गणितज्ञ' कहा जाता है।