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Dosto, mera naam hai Rohit Kumar. Mai class 9 to 12, CHS, Polytechnic, one day exam se se sambandhit post dalta hun. Thank You.
UP Board Result Kab Aayega: आ गई बड़ी खुशखबरी, इस दिन जारी होगा यूपी बोर्ड 10वी 12वी का रिजल्ट
सामाजिक विज्ञान में अच्छे अंक प्राप्त करने
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय
प्रतिदर्श प्रश्नपत्र विषय - हिन्दी (सम्पूर्ण हल)
सत्र 2021-22
हाईस्कूल
प्रतिदर्श
प्रश्नपत्र विषय - हिन्दी
पूर्णांक-70
समय-तीन
घण्टे 15 मिनट
नोट-
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्नपत्र पढ़ने के लिए निर्धारित है।
प्र01ः
(क) निम्नलिखित में से कोई एक कथन सही है, उसे पहचानकर लिखिए।
(i) 'सरस्वती' पत्रिका की सम्पादक महादेवी वर्मा थीं।
(ii) क्या भूलूँ क्या याद करूँ हरिवंश राय
बच्चन की आत्मकथा है।
(iii) राम विलास शर्मा कवि के रूप में
प्रसिद्ध हैं।
(iv) मैला आंचल' कहानी विधा की रचना है।
उत्तर (i) 'सरस्वती' पत्रिका की सम्पादक महादेवी वर्मा थीं।
(ख)
रस मीमांसा किसकी आलोचना कृति है
(i) रामचन्द्र शुक्ल
(ii) महावीर प्रसाद द्विवेदी
(iii) रांगेय राघव
(iv) केदारनाथ सिंह
उत्तर (i) रामचन्द्र शुक्ल
(ग)
निम्नलिखित में से किसी एक रचना की लेखक का नाम लिखिए
(i) अथाह सागर - प्रकाश भारती
(ii) अर्द्धनारीश्वर - विष्णु प्रभाकर
(iii) मेरी असफलताएँ - बाबू गुलाबराय
(iv) लहरों के राजहंस - मोहन राकेश
(घ)
गेहूँ और गुलाब किसकी रचना है
(i) रामवृक्ष बेनीपुरी
(ii) महादेवी वर्मा
(iii) राम विलास शर्मा
(iv) प्रेमचन्द
उत्तर - (i) रामवृक्ष बेनीपुरी
(ङ)
त्यागपत्र किस विधा की रचना है
(i) उपन्यास
(ii) कहानी
(iii) नाटक
(iv) एकांकी
उत्तर – उपन्यास ( जैनेंद्र कुमार)
प्र02:
(क) रीतिमुक्त धारा की किन्हीं दो कवियों का नाम लिखिए
आलम,
घनानंद, बोधा,
ठाकुर और द्विजदेव
(ख)
छायावाद की दो प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
सौंदर्य
और प्रेम चित्रण, प्रकृति-चित्रण,राष्ट्रप्रेम,रहस्यात्मकता,वेदना और करुणा,
वैयक्तिक सुख-दु:ख, अतीत प्रेम, कलावाद,प्रतीकात्मकता और लाक्षणिकता,अभिव्यंजना
आदि
(ग) उत्तरायण' कृति के रचनाकार का नाम लिखिए।
रामकुमार
वर्मा
प्र03:
निम्नलिखित गद्यांशों में से किसी एक के नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(क)
भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले भी जो सारी दुनिया के सभी देशों में बसे हुए
हैं। यहां भी थोड़ी बहुत संख्या में पाये जाते हैं और जिस तरह
यहां की बोलियों की गिनती आसान नहीं है उसी तरह यहां भिन्न-भिन्न धर्मो के
सम्प्रदायों की भी गिनती आसान नहीं है। इन विभिन्नताओं को देखकर यदि अपरिचित
आदमी घबराकर कह उठे कि यह एक देश नहीं अनेक देशों का समूह है, यह एक जाति नहीं
अनेक जातियों का समूह है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(iii) उपर्युक्त गद्यांश में भारत की बोलियों
एवं सम्प्रदायों के सम्बन्ध में लेखक द्वारा क्या बताया गया हैं?
उत्तर –
(i) सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के गद्यखण्ड में संकलित 'भारतीय संस्कृति' नामक पाठ से लिया
गया है। इसके लेखक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी हैं। प्रस्तुत पाठ में लेखक ने भारतीय
संस्कृति की विशिष्टताओं को रेखांकित किया है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या प्रस्तुत
पंक्तियों में लेखक कहता है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की भिन्नताओं को
देखकर कोई अनजान व्यक्ति ऐसा अनुभव कर सकता है कि भारत एक देश न होकर विभिन्न
देशों का समूह है। इसी प्रका भारत एक जाति या धर्म न होकर अनेक जातियों और धर्मों
का समूह है, जिसे अनेक राष्ट्रीयताओं में गिना जा सकता है। जब हम भारतीय संस्कृति
और सभ्यता को गहराई से देखते तब हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी प्राचीन संस्कृति
अनेकानेक संस्कृतियों का समावेशन करके भारतीय संस्कृति की उच्चता को और अधिक
गौरवशाली बनाती है।
(iii) भारत की बोलियों एवं सम्प्रदायों के
सम्बन्ध में लेखक कहता है कि हमारे देश में न केवल प्राकृतिक
विविधताएँ हैं अपितु धार्मिक विविधताएँ भी व्याप्त है। विश्व के सभी धर्मों के
अनुयायी (मानने वाले) हमारे देश में व्याप्त हैं। असंख्य धर्म सम्प्रदाय तथा
विचारधाराएँ हमारी भारतीय संस्कृति को उत्कृष्ट बनाते हैं, उसी प्रकार अनगिनत
बोलियाँ हमारी संस्कृति को सम्पन्न करती हैं। 'सर्व-धर्म समभाव' हमारी सभ्यता एवं
संस्कृति का मूलमन्त्र है।
अथवा
पहले
पहाड़ काटकर उसे खोखला कर दिया गया, फिर उसमें सुन्दर भवन बना लिये गये, जहाँ
खम्भों पर उमारी मूरते विहंस उठी। भीतर की दीवारें और छतें रगड़कर चिकनी कर ली
गयी और तब उसकी जमीन पर चित्रों की एक दुनिया ही वसा दी गयी। पहले पलस्तर लगाकर
आचार्यों ने उन पर लहराती रेखाओं में चित्रों की काया सिरज दी, फिर उनके चेले
कलावन्तों ने उनमें रंग भरकर प्राण फेंक दिये। फिर तो दीवार उमग उठी, पहाड़ पुलकित
हो उठे।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(iii) पहाड़ों को किस प्रकार जीवन्त बनाया
गया?
उत्तर-
(अ)
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित 'अजन्ता' पाठ से उद्धृत
किया गया है। इसके लेखक डॉ० भगवतशरण उपाध्याय हैं।
(ब)
रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक कहता है कि अजन्ता की चित्रकलाएँ वर्तमान स्वरूप
में कैसे आयीं इसके पीछे चित्रकारों ने कठोर परिश्रम किया था। पहाड़ को भीतर से
खोखला करके उसकी दीवारों और छतों को रगड़ करके पहले चिकना किया गया तब जाकर उस
चिकनी जमीन पर दुर्लभ चित्रों की एक सुन्दर दुनिया बसा दी गई।
(स)
निर्जीव पहाड़ों को प्राणवान जीवन्त बनाने में कलाकारों को कठोर परिश्रम करना पड़ा
है। पहाड़ों को भीतर से खोखला करने के बाद दीवारों, छतों को रगड़कर चिकना बनाया
गया फिर आचार्यों ने लहरदार रेखाओं द्वारा चित्रों का सृजन किया। फिर उनके शिष्यों
ने उनमें रंग भर कर सजीव बना दिया।
प्र04: निम्नलिखित पद्यांशों में से किसी एक की
ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए तथा काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(क)
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
मृत्यु
एक है विश्राम स्थल ।
जीव
जहाँ से फिर चलता है,
धारणकर
नवजीवन मण्डल ।।
मृत्यु
एक सरिता है, जिसमें
श्रम
से कातर जीव नहाकर।
फिर
नूतन धारण करता है,
काया
रूपी वस्त्र बहाकर।।
उत्तर –
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्य खण्ड के स्वदेश प्रेम
शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित स्वप्न से ली गई है।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा
हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु
का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है।
व्याख्या - कवि कहता है कि हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का
स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुनः नए शरीर को
धारण करके फिर से अपनी जीवन यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के समान है,
जिसमें नहाकर श्रम से कातर प्राणी पुराने शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके नए शरीर
रूपी वस्त्र को धारण करता है।
कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म
करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के
बाद नए शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन यात्रा को शुरू करता है।
मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने काया रूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः नए शरीर रूपी
वस्त्र को धारण करता है। अतः मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।
काव्यगत
सौन्दर्य
भाषा - खड़ी बोली
गुण - प्रसाद
छंद - मात्रिक
शैली - उद्बोधन
रस – वीर
शब्द-शक्ति - व्यंजना
अलंकार –
अनुप्रास
अलंकार
'जीव जहाँ', 'धारण कर' और 'नव जीवन' में क्रमश: 'ज', 'र' और 'न' वर्ण की
पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
रूपक
अलंकार
'मृत्यु एक सरिता है' में मृत्यु को नदी रूपी बताकर दोनों के मध्य का भेद समाप्त
हो गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
भाव
साम्य - कविवर मिल्टन ने भी मृत्यु के सम्बन्ध में कहा
है-"मृत्यु सोने की वह चाबी है, जो अमरता के महल को खोल देती है।"
अथवा
सुनि
सुन्दर वैन सुधा रस साने, सयानी है जानकी जानी भली।
तिरछे
करि नैन दे सैन तिन्हे समुझाइ कछु मुसकाय चली ।।
तुलसी
तेहि औसर सोहै सवै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तडाग
में भानु उदै विगसी मनो मंजुल कंज कली।
उत्तर –
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक 'काव्य
संकलन' से उद्धृत है जो गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'कवितावली' से संकलित
'वन-पथ पर' शीर्षक सवैया से अवतरित है।
प्रसंग - ग्राम वधुओं के जिज्ञासा करने पर कि सीता जी के
साथ वे दोनों पुरुष कौन हैं, सीता जी ग्राम वधुओं की चतुराई समझ गईं और उसी कौशल
से उनकी जिज्ञासा का शमन करती हैं जिस कौशल से उन्होंने प्रश्न किया था।
व्याख्या - तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्राम वधुओं
ने राम के विषय में सीताजी से पूछा कि ‘ये साँवले पुरुष तुम्हारे क्या लगते हैं?
ग्राम वधुओं के अमृत से पूर्ण मधुर वचनों को सुनकर चतुर सीताजी उनकी मनोभावना को
तत्काल समझ गयीं। सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कराहट तथा संकेत भरी
दृष्टि से ही दे दिया। उन्हें मुख से कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने
स्त्रियोचित लज्जा के कारण केवल संकेत से ही राम के विषय में 'ये मेरे पति हैं इस
प्रकार समझा दिया।
तुलसीदास
जी कहते हैं कि सीताजी के संकेत को समझकर सभी सखियाँ राम के सौन्दर्य को एकटक
देखती हुई अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करने लगीं। तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय
ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रेम के सरोवर में राम रूपी सूर्य उदय हो गया हो और ग्राम वधुओं के नेत्र
रूपी कमल की सुन्दर कलियाँ विकसित हो गयी हों।
के
काव्य-सौन्दर्य-(1) सीताजी का संकेतपूर्ण उत्तर भारतीय नारियों की मर्यादा अनुकूल
है। (2) प्रस्तुत पद में नाटकीयता और काव्य का सुन्दर योग है। (3) भाषा-सुललित,
ब्रज। (4) शैली-चित्रात्मक, मुक्तक (5) छन्द-सवैया (6) रस-शृंगार (7) अलंकार-रूपक,
उत्प्रेक्षा, अनुप्रास
प्र05:
(क) निम्नलिखित में से किसी एक लेखक का जीवन परिचय देते हुए उनकी किसी एक रचना का
उल्लेख कीजिए।
(i) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
(ii) डा० भगवतशरण उपाध्याय
(iii) जयशंकर प्रसाद
उत्तर –
(i)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
जीवन
परिचय पं०
रामचन्द्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के अगोना नामक गाँव में 1884 ई० में हुआ। चार
वर्ष की अवस्था में ये अपने पिता के साथ राठ जिला हमीरपुर चले गये और वहीं इनकी
प्रारम्भिक शिक्षा हुई। 1892 ई० में इनके पिता की नियुक्ति मिर्जापुर सदर में
कानूनगो के पद पर हुई। पिता के साथ ये मिर्जापुर आ गये। 1921 ई० में उन्होंने मिशन
स्कूल से फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त प्रयाग के कायस्थ पाठशाला इण्टर कॉलेज
में नाम लिखाया, किन्तु गणित में कमजोर होने के कारण इण्टर की परीक्षा नहीं दे
सके। बाद में 'हिन्दी शब्द सागर' के लिए वैतनिक सहायक के रूप में काशी आ कुछ दिनों
तक 'नागरी प्रचारिणी सभा' पत्रिका का भी सम्पादन किया। तदनन्तर आपकी नियुक्ति काशी
विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापक के रूप में हो गयी और वहीं 1937 में
विभागाध्यक्ष हो गये। श्वास का दौरा पड़ने के कारण 2 फरवरी, 1941 ई० को इनका
देहावसान हो गया।
रचनाएँ - चिन्तामणि, विचार-वीथी, रसमीमांसा, त्रिवेणी,
सूरदास, हिन्दी साहित्य का इतिहास आदि ।
(ii)
डा० भगवतशरण उपाध्याय
जीवन
परिचय डॉ०
भगवतशरण उपाध्याय का जन्म बलिया जिले के उजियारी नामक ग्राम में 1910 ई० में हुआ
था। आपने प्राचीन इतिहास विषय में काशी विश्वविद्यालय से एम० ए० किया। संग्रहालय
में पुरातत्त्व विभाग में आपकी विशेष रुचि थी। आप प्रयाग और लखनऊ संग्रहालय में
पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष के पद पर बहुत दिनों तक काम कर चुके हैं। कुछ दिनों
तक बिड़ला महाविद्यालय में प्राध्यापक का काम किया। कुछ दिनों तक विक्रम
महाविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर कार्य करते
रहे। आपने 100 से भी अधिक पुस्तकें लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्धशाली बनाया।
इनकी मृत्यु अगस्त 1982 ई० में हुई।
रचनाएँ - विश्व साहित्य की रूपरेखा, साहित्य
और कला, खून के • छींटे, इतिहास के पन्नों पर, कलकत्ता से पीकिंग, कुछ फीचर कुछ
एकांकी, इतिहास साक्षी है, ठूठा आम, सागर की लहरों पर, विश्व को एशिया की देन,
मन्दिर और भवन, इण्डिया इन कालिदास आदि।
(iii) जयशंकर प्रसाद
जीवन
परिचय - बाबू जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में
30 जनवरी, 1889 ई0 में हुआ था। इनके पिता श्री देवीप्रसाद साहू 'सुँघनी साहू' के
नाम से प्रख्यात थे। उनकी दानशीलता और उदारता के कारण उनके यहाँ विद्वानों और
कलाकारों का बराबर समादर हुआ करता था। इनकी शिक्षा का प्रारम्भ घर पर ही हुआ।
संस्कृत, फारसी, उर्दू और हिन्दी की शिक्षा इन्होंने घर पर ही स्वाध्याय से
प्राप्त की। कुछ समय के लिए स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में नाम लिखाया गया, किन्तु
वहाँ आठवीं कक्षा से ऊपर नहीं पढ़ सके। 12 वर्ष की अल्पायु में इनके पिता का
देहान्त हो गया। इनका अधिकांश जीवन काशी में बीता। जीवन में तीन-चार यात्राएँ करने
का अवसर मिला, जिसकी छाया इनकी कुछ रचनाओं में प्रतिभासित होती है। यक्ष्मा (टीबी)
के कारण प्रसाद जी का देहान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को हो गया।
रचनाएँ-
स्कन्दगुप्त,
अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, विशाख, ध्रुवस्वामिनी, कामना, राज्यश्री, करुणालय, एक
घूँट, छाया, आकाशदीप, इन्द्रजाल, कंकाल, तितली, इरावती, कामायनी, आँसू, झरना, लहर
आदि।
(ख) निम्नलिखित कवियों में से किसी एक कवि का
जीवन परिचय दीजिए तथा उनकी किसी एक रचना का नाम लिखिए।
(i) मैथिली शरण गुप्त
(ii) महादेवी वर्मा
(iii) सूरदास
उत्तर-
(i) मैथिली शरण गुप्त
जीवन-परिचय-
मैथिलीशरण गुप्त
का जन्म चिरगाँव, जिला झाँसी में 3 अगस्त, सन् 1886 ई० में हुआ था। काव्य-रचना की
ओर बाल्यावस्था से ही इनका झुकाव था। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने
हिन्दी काव्य की नवीन धारा को पुष्ट कर उसमें अपना विशेष स्थान बना लिया था। इनकी
कविता में देश-भक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की व्यंजना प्रमुख होने के कारण इन्हें
हिन्दी संसार ने 'राष्ट्रकवि' का सम्मान दिया। राष्ट्रपति ने इन्हें संसद सदस्य
मनोनीत किया। भारती का यह साधक 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० में गोलोकवासी हो गया।
रचनाएं- गुप्तजी की रचना-सम्पदा विशाल है।
इनकी विशेष ख्याति रामचरित पर आधारित महाकाव्य 'साकेत' के कारण है। 'जयद्रथ वध',
'भारत-भारती', 'अनघ', 'पंचवटी', 'यशोधरा', 'द्वापर', 'सिद्धराज' आदि गुप्तजी की
अन्य प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। 'यशोधरा' एक चम्पूकाव्य है जिसमें गुप्तजी ने
महात्मा बुद्ध के चरित्र का वर्णन किया है।
(ii) महादेवी वर्मा
जीवन परिचय - हिन्दी साहित्य में आधुनिक मीरा के नाम से प्रसिद्ध कवयित्री एवं
लेखिका महादेवी वर्मा का जन्म 1907 ई. में उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद शहर में हुआ
था। इनके पिता गोविन्दसहाय वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्रधानाचार्य थे। माता
हेमरानी साधारण कवयित्री थीं एवं श्रीकृष्ण में अटूट श्रद्धा रखती थीं। इनके नाना
जी को भी ब्रज भाषा में कविता करने की रुचि थी। नाना एवं माता के गुणों का महादेवी
पर गहरा प्रभाव पड़ा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में और उच्च शिक्षा प्रयाग
में हुई थी। नौ वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह स्वरूपनारायण वर्मा से हुआ,
किन्तु इन्हीं दिनों इनकी माता का स्वर्गवास हो गया, ऐसी विकट स्थिति में भी
इन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा। अत्यधिक परिश्रम के फलस्वरूप इन्होंने मैट्रिक से
लेकर एम. ए. तक की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण की। 1933 ई. में
इन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्या पद को सुशोभित किया। इन्होंने
लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयास किया, साथ ही नारी की स्वतन्त्रता के लिए
ये सदैव संघर्ष करती रहीं। इनके जीवन पर महात्मा गाँधी का तथा कला साहित्य साधना
पर रवीन्द्रनाथ टैगोर का प्रभाव पड़ा। 11 सितम्बर, 1987 को यह महान् कवयित्री
पंचतत्त्व में विलीन हो गईं।
कृतियाँ
नीहार,
रश्मि, नीरजा, सान्ध्य - गीत, दीपशिखा, हिमालय
(iii) सूरदास
जीवन परिचय –
भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का
जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई. में पण्डित रामदास जी के यहाँ हुआ था।
पण्डित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का
जन्म स्थान मानते हैं। सूरदास जन्म से अन्धे थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी
विद्वानों में मतभेद हैं। विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं
का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मान्ध व्यक्ति कर
ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे सम्भवतः बाद में अन्धे हुए होंगे।
वे हिन्दी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।
सूरदास जी एक बार वल्लभाचार्य जी के दर्शन के
लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, वल्लभाचार्य ने तभी
उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देख
वल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मन्दिर का कीर्तन भार सौंपा, तभी से वह मन्दिर उनका
निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार
के साथ ही रहते थे। वल्लभाचार्य जी के सम्पर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के
पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे।
सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई. में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।
काव्य
कृतियाँ
सूरसागर,
सूरसारावली, साहित्य-लहरी
प्र06: निम्नलिखित में से किसी का ससन्दर्भ
हिन्दी में अनुवाद कीजिए
मानव-जीवनस्य
संस्करण संस्कृति । अस्माकं पूर्वजाः मानवजीवन संस्कर्तु महान्तं प्रयत्नम्
अकुर्वन्। ते अस्माक जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत्
सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः ।
उत्तर – सन्दर्भ - प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी
पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के संस्कृत खण्ड में संकलित 'भारतीया संस्कृतिः' नामक पाठ
से उद्धृत है। इसमें लेखक ने भारतीय संस्कृति का परिचय देने के पूर्व संस्कृति का
अर्थ बतलाया है।
हिन्दी
अनुवाद– मानव जीवन का संस्कार करना ही
'संस्कृति' कहलाता है। हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन का संस्कार करने के लिए बहुत
प्रयत्न किया था। उन्होंने हमारे जीवन के संस्कार के लिए जिन आचारों-विचारों का
प्रदर्शन किया, वही सब हमारी संस्कृति है।
अथवा
मानं
हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न सोचति ।
कामं
हित्वार्थवान् भवति लोमं हित्वा सुखी भवेत्।।
उत्तर –
सन्दर्भ - प्रस्तुत गरिमामय श्लोक उपदेशात्मक पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक
'हिन्दी' के संस्कृत खण्ड के अन्तर्गत संगृहीत 'जीवन-सूत्राणि' नामक पाठ से अवतरित हैं। इनमें यक्ष और युधिष्ठिर
प्रश्न उत्तर के माता-पिता के महत्त्व को बताते हैं।
हिन्दी
अनुवाद - (मनुष्य) अभिमान को छोड़ना प्रिय होता
है और क्रोध को छोड़कर शोक नहीं करता, कामना को छोड़कर धनवान् होता है और लोभ को
छोड़कर सुखी होता है।
प्र07:
(क) अपनी पाठ्य पुस्तक से कण्ठस्थ किया हुआ कोई एक श्लोक लिखिए जो इस प्रश्न पत्र
में न आया हो।
अपदो
दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः ।
अमुखः
स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ।
(ख)
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए
(i)
पिता कस्मात् उच्चतर अस्ति?
उत्तर - खात् उच्चतरः पिता अस्ति।
(ii) गृहे सतः मित्रम् किम् अस्ति?
उत्तर- भार्या मित्रं गृहे सतः ।
(iii) लाभेन किं वर्धते?
उत्तर – लाभेन लोभः वर्धते।
(iv) दुर्मुखः कः आसीत् ?
उत्तर - दुर्मुखः एकः चाण्डालः आसीत्।
(v) ग्रामीणान् कः उपाहसत ?
उत्तर - ग्रामीणात् नागरिकः उपाहसत् ।
(क)
करुण' अथवा 'हास्य' रस का स्थायी भाव और परिभाषा बताइये।
करुण
रस (स्थायी भाव - शोक ) प्रिय व्यक्ति के पीड़ित या गत होने पर या इष्ट
वस्तु, वैभव आदि के नष्ट होने पर हृदय को जो क्षोभ या क्लेश होता है, उसी की
व्यंजना से करुण रस की उत्पत्ति होती है।
हास्य
रस (स्थायी भाव - हास) किसी
व्यक्ति की अनोखी आकृति, अनोखे ढंग की वेश-भूषा तथा बातचीत, विचित्र प्रकार की
चेष्टाएँ आदि असंगतिपूर्ण वस्तुओं अथवा क्रियाओं को देखकर हृदय में जो विनोद का
भाव उत्पन्न होता है वही 'हास' कहलाता है। यह मानव-मन में स्थायी रूप से रहता है।
विभाव, अनुभाव, संचारी से पुष्ट होने पर यही स्थायी भाव 'हास्य रस' बन जाता है।
(ख)
'उपमा' अथवा 'रूपक अलंकार की परिभाषा देते हुए उदाहरण बताइये |
उपमा अलंकार - जब किसी वस्तु का वर्णन करने के लिए
उससे अधिक प्रसिद्ध वस्तु से गुण, धर्म आदि के आधार पर उसकी समानता की जाती है, तब
उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण
कर
कमल के समान सुन्दर हैं।
स्पष्टीकरण
(i)
उपमेय कर (हाथ)
(ii) उपमान कमल (फूल)
(iii) साधारण
धर्म सुन्दर
(iii)
वाचक शब्द समान
रूपक अलंकार - जब उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी दोनों में समता की जाए और
उपमेय को उपमान के रूप में दिखाया जाए, तो रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण
मैया
मैं तो चन्द्र खिलौना लैहो ।
स्पष्टीकरण - इसमें चन्द्रमा (उपमेय) पर खिलौना (उपमान) का
अभेद आरोप हुआ है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।
(ख)
सोरठा अथवा 'रोला छंद की परिभाषा देते हुए उदाहरण बताइये।
सोरठा छंद - दोहे का उल्टा रूप 'सोरठा' कहलाता है।
यह एक अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसके पहले और तीसरे चरणों में 11-11 तथा दूसरे और
चौथे चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं। तुक विषम चरणों में ही होते हैं तथा सम
चरणों के अन्त में जगण (ISI) नहीं होता है।
उदाहरण-
नील
सरोरुह स्याम
S l I
S l l S l =
11 मात्राएँ
तरुण
अरुण बारिज नयन
I l l l
l l S l l l
l l = 13 मात्राएँ
करउ सोमम उर धाम
I l l S
l l l l
S l = 11 मात्राएँ
सदा
क्षीर सागर
सयन
I S S
l S
l l l l
l = 13 मात्राएँ
रोला
छंद - यह सम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं
और प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 11 और 13 मात्राओं पर यति होती है।
उदाहरण
I l S l l
S S l S
l l l
l l l
l S l l
कोउ
पापिह पंचत्व प्राप्त सुनि जमगन धावत ।
बनि
बनि बावन वीर बढ़त चौचंद मचावत ।
पै
तकि ताकी लोथ त्रिपथगा के तट लावत।
नौ
द्वै, ग्यारह होत तीन पाँचहिं बिसरावत।।
इसके
प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ हैं। 11-13 पर यति है, अतः यह छंद रोला है।
प्र09: (क) निम्नलिखित उपसर्गों में से किन्हीं
तीन के मेल से एक-एक शब्द बनाइये।
(i) सु = सुलभ, सुजन, सुयोग्य
(ii) प्र = प्रहार, प्रबल, प्रभाव
(iii) प्रति = प्रतिध्वनि, प्रतिक्रिया, प्रतिदिन,
(iv) उप = उपकरण, उपकार, उपहार, उपदेश,
(v) निर् = निर्बल, निर्भर, निर्देश, निर्दोष
(vi) अभि = अभियान, अभिनय, अभिलेख, अभिलाषा
(ख) निम्नलिखित में से किन्ही दो प्रत्ययों के
प्रयोग से एक-एक शब्द बनाइये
(i) ना = पछताना, पहुंचाना,
(ii) पन = अपनापन, बचपन,
(iii) इक = नागरिक, नैतिक, राजनीतिक
(iv)
ईय = भारतीय, राष्ट्रीय, मानवीय
(ग)
निम्नलिखित में से किन्हीं दो का समास-विग्रह कीजिए तथा समास का नाम बताइए
(i)
राधाकृष्ण
उत्तर – राधा और कृष्ण , द्वंद्व समास
(ii) सप्तधान्य
उत्तर - सात प्रकार के अनाज, द्विगु समास
(iii) चौराहा
उत्तर - चार
रास्तों का समूह , द्विगु समास
(iv) उत्थान - पतन
उत्तर – उत्थान और पतन, द्वन्द समास
(घ)
निम्नलिखित में से किन्हीं दो शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
(i) घर - गृह
(ii) मानुष - मनुष्य
(iii) गाँव - ग्राम
(iv) चाँद – चन्द्र
(ङ)
निम्नलिखित में से किन्हीं दो शब्दों के दो-दो पर्यायवाची लिखिए
(i) ईश्वर – भगवान, परमेश्वर, परमात्मा
(ii) कमल - राजीव, पंकज, जलज
(iii) फूल – पुष्प, कुसुम, सुमन
(iv) जंगल – वन, विपिन, अरण्य
प्र010ः
(क) निम्नलिखित शब्दों में से किन्हीं दो का सन्धि विच्छेद कीजिए और संधि का नाम
लिखिए
(i) प्रत्युत्तरम्
प्रति + उत्तरं, यण सन्धि
(ii) स्वागतम्
सु + आगतम् , यण संधि
(iii) इत्यादि
इति + आदि,
यण सन्धि
(iv) लाकृति
लृ + आकृतिः, यण सन्धि
(ख)
निम्नलिखित शब्दों की चतुर्थी विभक्ति एवं द्विवचन का रूप लिखिए
(i) 'मधु' अथवा 'नदी'
उत्तर- मधुभ्याम्
नदिभ्याम्
(ii) फल अथवा मति
उत्तर - फलाभ्याम्
मतिभ्याम्
(ग)
निम्नलिखित शब्दों में से किसी एक का धातु लकार, पुरुष तथा वचन का उल्लेख कीजिए
(i) अहसम् – हस् धातु, लङ्लकार (भूतकाल), उत्तम पुरूष, एकवचन
(ii) पठाव - पठ् (पढ़ना) धातु, लोट्लकार ('आज्ञा' अर्थ में), उत्तम पुरूष, द्विवचन
(iii) हसिष्यथ: - हस् (हँसना) धातु, लृट्लकार (भविष्यत्काल), मध्यम पुरूष, द्विवचन
(ग)
निम्नलिखित में से किन्हीं दो वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए।
(I) प्रयाग गंगा तट पर स्थित है।
प्रयागः
गंगा तटे स्थितः ।
(ii) तुम दोनों क्या करते हो।
युवां किं कुरुतः।
(iii) विद्या विनय से बढ़ती है।
विद्या विनयेन वर्धते।
(iv) गंगा भारत की पवित्र नदी है।
गंगा भारतस्य पवित्र
नद्यः अस्ति।
(v) हमें माता-पिता की सेवा करनी चाहिए।
वयं माता पितरौ
सेवाम् कुर्यात्।
प्र011: निम्नलिखित विषयों में से किसी एक विषय
पर निबन्ध लिखिए
(i) स्वास्थ्य और शिक्षा
(ii) पर्यावरण प्रदूषण
(iii) वन महोत्सव
(iv) साहित्य और समाज
(¡) स्वास्थ्य - शिक्षा से लाभ
संकेत
बिन्दु भूमिका, विद्यालय में स्वास्थ्य
शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा की आवश्यकता, स्वास्थ्य शिक्षा के लाभ, उपसंहार
भूमिका किसी भी देश की प्रगति के लिए वहाँ के
नागरिकों को स्वस्थ रहना आवश्यक है। अतः व्यक्तित्व के निर्माण और समाज के उत्थान
हेतु स्वास्थ्य शिक्षा का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। चाल्स ए. बुचर के अनुसार-
"स्वास्थ्य शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा-क्रिया का अभिन्न अंग है। इसका उद्देश्य
शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं सामाजिक दृष्टि से परिपूर्ण नागरिकों का ऐसी
शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से विकास करना है, जिनका चयन इन उद्देश्यों को सामने
रखकर किया गया हो।" स्वास्थ्य शिक्षा के अभाव में अन्य सभी प्रकार की
शिक्षाएँ अपूर्ण हैं। यदि मनुष्य स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का उचित प्रकार से
पालन करेगा तो कई रोगों से उसका बचाव हो सकता है। स्वास्थ्य शिक्षा मनुष्य को
सुन्दरता, अच्छा वातावरण उपलब्ध कराने के साथ ही अच्छे-बुरे की पहचान करना भी
सिखाती है। आज विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा का उद्देश्य छात्रों का मानसिक,
भावात्मक, शारीरिक रूप से विकास करना है तथा साथ ही उनके अन्दर छिपी हुई शक्तियों
को उजागर कर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना भी है।
विद्यालय
में स्वास्थ्य शिक्षा विद्यालय में जितना महत्त्व ज्ञान को दिया जा रहा है, उतना ही
महत्त्व स्वास्थ्य शिक्षा को भी दिया जाना चाहिए। प्रत्येक विद्यालय के लिए यह
आवश्यक है कि वह अपने विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा से सम्बन्धित नियमों का
निर्धारण करें व इस दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहे। विद्यालयों का यह कर्त्तव्य
होना चाहिए कि वे अपने छात्रों को स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों-खाँसना, छींकना,
थूकना, नशीले पदार्थों के सेवा आदि से होने वाली हानियों से अवगत कराएँ, जिससे
छात्र अपने स्वास्थ का उचित प्रकार विकास कर सकेंगे।
छात्रों
को स्वास्थ्य से सम्बन्धित शिक्षा देने, स्वास्थ्य सम्बन्धी उद्देश्यों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, जो निम्न
हैं
· छात्रों के स्वास्थ्य पर ध्यान देते
हुए उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी सभी प्रकार की उचित जानकारी उपलब्ध करवाई जानी
चाहिए।
· छात्रों में अच्छे स्वास्थ्य के लिए
रुचि व जागरूकता पैदा की जाए।
•
प्रत्येक छात्र के स्वास्थ्य के लिए समय-समय पर जांच-पड़ताल की जानी चाहिए।
· छात्रों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाए
रखने हेतु उन्हें अपने आस-पास के वातावरण की सफाई के महत्त्व से अवगत कराया जाना चाहिए।
स्वास्थ्य
शिक्षा की आवश्यकता
आधुनिक समय में स्वास्थ्य शिक्षा के महत्त्व पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है। सरकार
द्वारा सरकारी विद्यालयों में छात्रों के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जा रहा
है। कहा गया है-स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। यदि छात्र
शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं, तो वह दोगुने उत्साह के साथ अन्य गतिविधियों में भाग
ले सकेंगे। स्वस्थ मनुष्यों से स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण हो पाता है।
चाहे वह विद्यार्थी हो, मजदूर हो या अन्य किसी क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति
ही क्यों न हो। वह अपने कार्य को उचित से प्रकार तभी सम्पन्न कर सकते हैं, जब वह पूर्ण
रूप से स्वस्थ होंगे। विद्यालयों का कर्त्तव्य है कि वे छात्रों को स्वास्थ्य से
सम्बन्धित जानकारी एवं सेवाएँ उपलब्ध कराएँ, जिससे छात्र अपने जीवन का स्तर ऊँचा
कर सकें।
स्वास्थ्य
शिक्षा के लाभ विद्यालय
में प्रदान की जाने वाली स्वास्थ्य शिक्षा का छात्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कुछ व्यक्ति
स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ मनोरंजन के साधन खेलने-कूदने के साधन या व्यायाम के रूप
में लेते हैं इसी कारणवश भारत में आज में स्वास्थ्य शिक्षा की स्थिति अत्यन्त
विचित्र है। स्वास्थ्य शिक्षा के द्वारा छात्र अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता
है तथा साथ ही अपना जीवन भी प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर सकता है। स्वास्थ्य शिक्षा
के द्वारा छात्र रोगों से विमुक्त रह पाएगा। इससे छात्र के आत्मविश्वास में वृद्धि
होगी एवं वह सफलता के पथ पर अग्रसर होगा। छात्र हमारे देश की नींव हैं। यदि छात्र
सुरक्षित व स्वस्थ रहेंगे तो वह देश की प्रगति मे अपना योगदान दे पाएँगे।
उपसंहार विद्यालय में जब तक स्वास्थ्य शिक्षा
को शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण अंग नहीं स्वीकार किया जाता है, तब तक देश के नवयुवक
देश की प्रगति में अपना योगदान नहीं दे पाएंगे। मनुष्य के व्यक्तित्व में
चारित्रिक परिपक्वता लाने हेतु व आदर्श व्यक्तित्व के निर्माण हेतु स्वास्थ्य
शिक्षा का ज्ञान दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है। स्वास्थ्य शिक्षा के अन्तर्गत
व्यक्ति को चुस्त रहने व अपने वातावरण से भली-भाँति परिचित होने की शिक्षा प्रदान
की जाती है। स्वास्थ्य शिक्षा की उपयोगिता तभी सभी के समझ आएगी जब इसे उचित प्रकार
से अनिवार्य रूप से विद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थानों में लागू किया जाएगा।
यह शारीरिक और सामाजिक दृष्टि के साथ व्यावहारिक दृष्टि से भी महत्त्व रखती है।
अतः स्वास्थ्य मानव जीवन का आधार है। इसलिए कहा भी गया है कि 'यदि मनुष्य के पास
से धन चला गया तो समझो कुछ नहीं गया, यदि उसका चरित्र चला गया तो समझो की सबकुछ
चला गया और यदि उसका स्वास्थ्य चला गया तो भी समझो सब कुछ चला गया।"
(¡¡) पर्यावरण प्रदूषण
संकेत बिन्दु भूमिका, प्रदूषण के प्रकार और
कारण प्रदूषण से होने वाली हानियाँ, प्रदूषण को रोकने के उपाय, उपसंहार
भूमिका
प्रदूषण का अर्थ है-वायुमण्डल
या वातावरण का दूषित होना। पृथ्वी पर उपस्थित जीवों के लिए सन्तुलित वातावरण की
आवश्यकता होती है, जिसमें हर तस्व एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। यदि
इनमें से किसी में जरा-सा भी असन्तुलन हो जाए, तो वातावरण विषैला हो जाता है। यही
प्रदूषण है।
प्रदूषण के प्रकार और कारण जनसंख्या और
उद्योगों के बढ़ने के साथ-साथ प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। प्रदूषण तीन प्रकार का होता है-जल
प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण जल प्रदूषण मुख्यतः नदियों, समुद्री तथा
अन्य जलाशयों में उद्योगों और शहरों की अन्य गन्दी नालियों के दूषित जल के
मिलने से है। उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में रसायनों की अधिकता कई गम्भीर र
को जन्म देती है। वायु प्रदूषण उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले ज़हरीले धुएं
सड़कों पर चलने वाले वाहनों से निकलने वाले दूषित धुएँ के कारण होता है।
विकास की अन्धी दौड़ के कारण बनो की बेरहमी से कटाई भी
वायु प्रदूषण को बदली में सहायता कर रही है। ध्वनि प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले
शोर, घरों तक सार्वजनिक स्थलों में बजने वाले टेपरिकॉर्डर आदि की आवाज़ों से होता
है। इसके कारण बहरेपन की समस्या उत्पन्न हो रही है।
प्रदूषण से होने वाली हानियाँ प्रदूषण की समस्या के
लिए सबसे अधिक जिम्मेदार जनसंख्या वृद्धि है। इस जनवृद्धि के कारण ही ग्रामों,
नगरों तथा महानगरों को विस्तार देने आवश्यकता अनुभव हो रही है परिणामस्वरूप जंगल
काटकर वहाँ बस्तिष बसाई जा रही है। वृक्षों और वनस्पतियों की कमी के कारण प्रकृति
की स्वाभाविक क्रिया में असन्तुलन पैदा हो गया है। प्रकृति जो जीवनोपयोगी सामग्री
जुटाती है, उसकी उपेक्ष हो रही है। प्रकृति का स्वस्थ वातावरण दोषपूर्ण हो गया है।
यहीं पर्यावरण को सबसे बड़ी समस्या है। कारखानों की अधिकता के कारण वातावरण प्रदूषित
हो रहा है। साथ ही वाहनों तथा मशीनों से उत्पन्न होने वाला शोर ध्वनि प्रदूषण को
जन्म देता है, जिसमें मानसिक तनाव व श्रवण दोष तथा कान के अन्य कई रोग उत्पन्न
होते हैं। इस शोर-गुल के कारण मनुष्य अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों
का शिकार बनता जा रहा है।
प्रदूषण
को रोकने के उपाय
समय रहते ही प्रदूषण से बचने के उपाय कर लिए जाने हिए, जिससे आने वाली पीढ़ियों को
इसके खतरों से बचाया जा सके। इसके लिए जनसंख्या नियन्त्रित करना होगा। कारखानों के
कचरे को नदियों में बहने रोकना होगा। पेट्रोल में लाए जाने वाले शीशे की मात्रा कम
करनी होगी। वृक्षारोपण पर ज़ोर देना होगा।
ऊर्जा के गैर-पारम्परिक स्रोतों की खोज करनी
पड़ेगी। अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले रखानों वाहनों आदि पर प्रतिबन्ध लगाना
पड़ेगा। यद्यपि प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता तो माप्त नहीं की जा सकती, किन्तु
प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि इसका
प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर न पड़ने पाए, इसके लिए हमे उद्योगों को संख्या के
अनुपात में बड़ी संख्या में पेड़ों को लगाने की आवश्यकता है।
इसके
अलावा पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए हमें जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने हो भी
आवश्यकता है, क्योंकि जनसंख्या में वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से जीवन के लिए
अधिक प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ती हैं और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के
प्रयास में उद्योगों की स्थापना होती है और उद्योग कहीं-न-कहीं प्रदूषण का कारण
बनते है। यदि हम चाहते कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ
सन्तुलित विकास भी हो तो इसके लिए हमे नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा।
प्राकृतिक संसाधनो की सुरक्षा तब ही सम्भव है, जब हम उनका उपयुक्त प्रयोग करें।
उपसंहार यद्यपि सरकारी स्तर पर पर्यावरण
को सही रखने तथा प्रदूषण को रोकने के कई उपाय किए गए हैं, लेकिन प्रदूषण तब तक
नहीं रुक सकेगा, जब तक यह जन-जन का अन्दोलन न बन जाए। वस्तुत: पर्यावरण प्रदूषण एक
वैश्विक समस्या है, जिससे निपटना वैश्विक स्तर पर ही सम्भव है, किन्तु इसके लिए
प्रयास स्थानीय स्तर पर भी किए जाने चाहिए। विकास एवं पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी
नहीं हैं, अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं। न्तुलित एवं शुद्ध पर्यावरण के बिना मानव
का जीवन कष्टमय हो जाएगा। हमारा अस्तित्व व जीवन की गुणवत्ता एक स्वस्थ प्राकृतिक पर्यावरण
पर निर्भर है। विकास हमारे लिए वश्यक है और इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
भी आवश्यक है, किन्तु ऐसा करते समय हमे इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे
पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान न हो।
पृथ्वी
के बढ़ते तापक्रम को नियन्त्रित कर, जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए देशी
कनीकों से बने उत्पादों का उत्पादन तथा उपयोग ज़रूरी है। इसके साथ ही प्रदूषण को
कम घने के लिए सामाजिक तथा कृषि वानिकी के माध्यम से अधिक-से-अधिक पेड़ लगाए जाने
भी आवश्यकता है।
(iii) वन महोत्सव
रूपरेखा- (1) प्रस्तावना, (2) वनों का आर्थिक
महत्त्व - (क) प्रत्यक्ष लाभ, (ख) अप्रत्यक्ष लाभ (3) वनों के विकास के लिए सरकारी
प्रयास, (4) उपसंहार ।
1)
प्रस्तावना –
“जीव-जगत् के रक्षक हैं वन, करते दूर प्रदूषण ।
धन-सम्पत्ति स्वास्थ्य दायक हैं, ये
जगती के भूषण।"
हमारा देश प्राचीन काल से वन प्रधान रहा है। वन
एक ऐसा गोदाम है जहाँ से हमें भोजन बनाने के लिए ईंधन, फर्नीचर के लिए लकड़ी व
कागज के लिए | लुग्दी की प्राप्ति होती है। वन प्राकृतिक ऊर्जा के मुख्य स्रोत
हैं। किसी भी देश की आर्थिक विकास एवं उसकी समृद्धि के लिए वन का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। वन बाढ़ पर नियन्त्रण करके भूमि के कटाव को भी रोकती है।
(2)
वनों का आर्थिक महत्त्व - पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, "एक उगता हुआ वृक्ष राष्ट्र
की प्रगति का जीवित प्रतीक है।” भारतीय अर्थव्यवस्था में वनों का विशेष महत्त्व
है। वनों के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए जे० एस० कॉलिन्स ने लिखा है-“वृक्ष
पर्वतों को थामे रखते हैं। वे तूफानी वर्षा को दबाते हैं तथा नदियों को अनुशासन
में रखते हैं। वे झरनों को बनाये रखते हैं तथा पक्षियों का पोषण करते हैं।"
इस प्रकार वनों से हमें अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ लाभों
का विवरण इस प्रकार है :
(क)
प्रत्यक्ष लाभ - वनों
से होनेवाले कुछ प्रत्यक्ष लाभों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
(अ)
लकड़ी की प्राप्ति- वनों से हमें अनेक प्रकार की लकड़ियाँ
प्राप्त होती हैं। भारतीय वनों से लगभग 550 प्रकार की ऐसी लकड़ियाँ प्राप्त होती
हैं जो व्यापारिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। इनमें से साल, सागौन, चीड़, देवदार,
शीशम, आबनूस तथा चन्दन आदि की लकड़ियाँ मुख्य हैं।
(ब)
कच्चे माल की प्राप्ति- वनों से हमें उद्योगों के लिए कच्चे माल की
प्राप्ति होती है। वनों से हमें लाख, चपड़ा, गोंद, शहद, कत्था, छालें, बाँस एवं
बेत, जड़ी-बूटियाँ, इत्यादि प्राप्त होते हैं।
(स)
व्यक्तियों के लिए रोजगार ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 7.8 करोड़ व्यक्तियों की जीविका
वनों पर आश्रित है।" (द) पशुओं को चारा-पशुओं के लिए बड़ी मात्रा में चारा
हमें वनों से ही प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त वन पशु-पक्षियों का पोषण भी करते
हैं।
(य)
राजस्व की प्राप्ति-
सरकार को वनों का उपयोग करने से राजस्व तथा नीलामी- रायल्टी के रूप में करोड़ों
रुपये की प्राप्ति होती है।
(र)
आयुर्वेदिक एवं अन्य जड़ी-बूटियों की प्राप्ति- भारतीय वनों से अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों
की प्राप्ति होती है, जिनसे कई प्रकार के रोगों का उपचार किया जाता है।
(ख)
अप्रत्यक्ष लाभ-
वनों से हमें अनेक प्रकार के अप्रत्यक्ष लाभ होते हैं, जो निम्न प्रकार हैं:
(अ)
जलवायु पर नियन्त्रण- वातावरण के तापक्रम, नमी तथा वायु प्रवाह को नियन्त्रित करके वन
जलवायु को सन्तुलित बनाये रखते हैं। वन तूफानी हवाओं को रोककर उनका वेग कम करते
हैं जिससे उनसे होने वाले विनाश से रक्षा होती है।
(ब)
पर्यावरण सन्तुलन- वन
कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण कर अपना भोजन बनाते हैं, जबकि अन्य जीवधारी कार्बन
डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। इस प्रकार वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़
नहीं पाती और पर्यावरण सन्तुलन बना रहता है।
(स)
वर्षा में सहायक- वन वर्षा करने में मदद करते हैं अतः वनों को वर्षा का संचालक कहा
जाता है। वनों से वर्षा होती है और वर्षा से वन बढ़ते हैं। (द) रेगिस्तान के
प्रसार पर रोक-वन रेगिस्तान के प्रसार को रोकते हैं। वे तेज आँधियों को रोककर,
वर्षा को आकर्षित करके तथा मिट्टी के कणों को अपनी जड़ों में बाँधकर रेगिस्तानों
के प्रसार पर रोक लगाते हैं।
(3)
वनों के विकास के लिए सरकारी प्रयास- देश की वन सम्पदा को देखते हुए भारत सरकार ने इसके विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम
उठाये हैं। 1956 ई0 में 'अधिक वृक्ष लगाओ आन्दोलन' आरम्भ किया गया जिसे 'वन
महोत्सव' का नाम दिया गया। 1965 ई० में सरकार ने 'केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना
की। वनों के विकास के लिए देहरादून में 'वन अनुसन्धान संस्थान' स्थापित किया गया।
(4)
उपसंहार-
प्राचीन काल से ही वन मनुष्य के संगी एवं साथी बने रहे हैं। जब मनुष्य जंगलों में
रहता था तब वह पूरी तरह से वनों पर ही आश्रित रहता था। उसके द्वारा प्रदत्त फल,
फूल, कन्दमूल आदि से ही अपना पेट भरता है। इस प्रकार वन तथा मनुष्य का नाता बहुत पुराना है।
(v)
साहित्य और समाज
रूपरेखा
·
प्रस्तावना
·
साहित्य तथा समाज का संबंध
·
साहित्य का समाज पर प्रभाव
·
समाज पर साहित्य का प्रभाव
·
समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान
·
उपसंहार
प्रस्तावना- जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से जगत में उजाला होता
है उसी प्रकार साहित्य के प्रकाश से समाज का अंधकार दूर होता है समाज
का अंधकार दूर करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है समाज के मस्तिष्क से जो
भाव निकलते हैं उसी संचित भाव को साहित्य के नाम से जाना जाता है साहित्य की भावना
में राष्ट्रीयता एवं सामाजिकता का भाव शक्तिहीन हो जाता है जिसके कारण समाज
की गतिविधियों को व्यक्त करने के लिए एक सरल साधन प्राप्त होता है
साहित्य तथा समाज का संबंध- साहित्य तथा समाज एक दूसरे से बहुत करीब का संबंध रखते हैं
साहित्य में मानव समाज के भाव को व्यक्त करता है इसके आधार पर कुछ विद्वानों ने
साहित्य को समाज की ज्योति तथा समाज का ज्ञान और समाज का आईना कहां है विश्व
के महान रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में समाज के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया है
तथा समाज के स्वरूप के बारे में बताएं है
साहित्य का समाज पर प्रभाव- साहित्य के प्रभाव से कोई भी काल परे नहीं है तथा साहित्य
का प्रभाव सभी काल पर पड़ता है समाज को अपनी आवश्यकताओं की सुविधा के लिए साहित्य
पर निर्भर होना पड़ता है एक अच्छा साहित्य समाज के स्वरूप में आवश्यकता की
पूर्ति करता है साहित्य की शक्ति तलवार बम गोल से भी बड़ी होती है
समाज को साहित्य का आईना माना जाता
है फिर स्वयं समाज साहित्य के आईने से प्रभावित होता है हिंदी साहित्य की
दृष्टि से यह बात स्वयं व्यस्त हो जाती है वीरगाथा काल का स्वरूप युद्ध एवं शांति
से भरा हुआ था वीरता का प्रदर्शन ही मानव जीवन का महत्व कहलाता है
युद्ध हमेशा अशांति एवं झगड़ों के कारण होते हैं उस युग के
आधार पर अनुकूल ही चारण कवियों ने काव्य रचना का वर्णन किया इस काल में
प्रमुख रूप से प्रकृति में वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता है इसके आधार पर ही
काव्य रचना हुई भक्ति काल का समय चालू होते ही विदेशियों ने अपने शासन को लागू
करना प्रारंभ कर दिया जिसके कारण भारत की संस्कृति एवं कला में आशंका आने लगी
निराशा के कारण मानव जनता को भक्ति आंदोलन की सशक्त लहरी ने जीवनदायिनी
प्रेरणा दी यही कारण है
साहित्यकार ज्ञान और स्नेह के रूप
से प्रभावित होते हैं इस समय कुछ महान विद्वानों ने राम और कृष्ण की लोक मंगलकारी
रूपों के सहारे पूरे समाज में धैर्य की स्थापना की महान संतों तथा विद्वानों के
कारण ही इस समाज में चेतना का संचार प्राप्त हुआ तथा निराशा से मुक्त हुए
रीतिकाल में काव्य का पूरा सृजन मिलता है दरबारी विलासिता से प्रेरित होकर
बिहारी और देव जैसे प्रतिनिधि कवि नारी के अंगों के मादक चित्रण को निहारने मैं
लीन थे
साहित्य किसे कहते है
समय के साथ विभिन्न प्रकार की कविता कामिनी अपना सिंगार
स्वरूप निहारने लगी थी आधुनिक काल प्रारंभ होने के साथ भारतीय समाज पर पुरानी
सभ्यता का प्रभाव होने लगा था विज्ञान के द्वारा साहित्य और समाज में बहुत
बड़े-बड़े परिवर्तन हुए हैं नव जागृत से उत्साहित होकर साहित्य की धारा समाज सुधार
की ओर आगमन करने लगी कवियों की भाषा रोजी रोटी समाज सुधार आदि प्रकारों की
समस्याओं को स्वर प्रदान करती है समाज अपने अनुकूल साहित्य में बदलाव लाता है
समाज का
साहित्य पर प्रभाव- समाज
के प्रभाव के बिना आदर्श साहित्य की रचना करना व्यर्थ है साहित्यकार तीन भागो में
विभक्त हैं इसीलिए वहां अंत समय के परिपेक्ष में आने वाले समय का अंकन भविष्य
दर्शाता है साहित्य में समाज की सभी प्रकारों की समस्याओं का समाधान मिलता
है साहित्य में सामाजिक परंपराएं घटनाएं तथा परिस्थितियाआदि समाज की जनता को
प्रेरित करती है साहित्यकार भी समाज का प्राणी कहलाता है तथा वह इस प्रभाव से दूर
नहीं रह सकता हम समाज में जो कुछ भी देखते हैं और सीखते हैं उसे साहित्य के
रूप में अभी व्यक्त करते हैं इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाज का साहित्य पर
प्रभाव पड़ता है
साहित्य
का अर्थ
समाज के
उत्थान में साहित्य का योगदान- समाज की दशा सुधारने के लिए आवश्यक है कि साहित्य को समाज के रूप
में अपनाएं और साहित्य के गुणों को समाज में उतारे साहित्य से समाज को बहुत सारी
प्रेरणा मिलती है इसलिए हमें समाज के उत्थान के लिए साहित्य को उपयोग में लाना
चाहिए साहित्य से ही समाज का उत्थान संभव है इस प्रकार समाज को एक सही दिशा देने
के लिए साहित्य का होना आवश्यक है
उपसंहार- हमारे जीवन में साहित्य का ऐसा महत्व है जो कभी खत्म नहीं
हो सकता साहित्य से हमारे समाज को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है सही दिशा मिलती
है जिस पर चलकर हम एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण कर सकते हैं साहित्य मानव जीवन को
सुधारने के साथ समाज के पथ प्रदर्शन मैं भी सुधार करता है साहित्य में
मानव जीवन के अतीत का भी वर्णन मिलता है वर्तमान का चित्रण भी प्रदर्शित होता है
तथा भविष्य के निर्माण की भी प्रेरणा मिलती है इसी कारण हम कह सकते हैं कि साहित्य
और समाज का गहरा संबंध है साहित्य और समाज को परिवर्तित करता है एक स्वस्थ साहित्य
इस प्रकार कार्य करता है कि वह समाज को मार्गदर्शन दे रहा हो
प्र012: अपने पठित खण्डकाव्य के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से
किसी एक का उत्तर दीजिए
(क)
(i) मुक्तिदूत खण्डकाव्य के आधार पर
गाँधीजी की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-
गाँधीजी का
अवतरण भारत की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की महान् घटना है। अपने गरिमामय एवं
अलौकिक चरित्र-बल से गाँधीजी सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करके युग पुरुष कहलाये।
'मुक्ति-दूत' महात्मा गाँधी के इसी पावन चरित्र के प्रति कविवर 'डॉ० राजेन्द्र
मिश्र की एक भावपूर्ण काव्याञ्जलि है। इस खण्डकाव्य के नायक गाँधीजी हैं। प्रस्तुत
खण्डकाव्य के आधार पर गाँधीजी के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
(i) दिव्य
पुरुष-काव्य के प्रथम सर्ग में ही कवि ने महात्मा गाँधी को अ बताया है। भारत में
अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ने पर ईश्वर की दिव्य शक्ति गाँधीजी के रूप में अवतरित
हुई थी। वे एक युगद्रष्टा एवं अलौकिक पुरुष थे। ऐसे महापुरुष पृथ्वी पर अवतार के
रूप में कभी-कभी प्रकट होते हैं, जो पृथ्वी के दुःखों का हरण करने के लिए आते हैं।
इस प्रकार से मुक्ति दूत के नायक गाँधी जी साधारण मनुष्य न होकर दिव्य पुरुष हैं।
(ii) हरिजनों
के उद्धारक-महात्मा गाँधी ने जीवनपर्यन्त दलितों, पिछड़ों तथा हरिजनों को गले
लगाया। वे बहुत दिनों तक हरिजनों की बस्ती में रहे। गाँधीजी के जीवन का मुख्य
उद्देश्य भी हरिजनों का उद्धार करना ही था। कवि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है
दलितों
के उद्धार हेतु ही, तुमने झण्डा किया बुलन्द । तीस वर्ष तक रहे जूझते अंग्रेजों से
अथक् अमन्द ।।
(iii) मातृ-भक्त-गाँधीजी
माँ के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति की भावना रखते थे। माँ को स्वप्न में देखने पर
वे सोचते हैं, "माँ जैसी कहीं नहीं ममता ।” और वे माँ की प्रेरणा से ही देश
की सेवा में जुट जाते हैं। गाँधी जी ने उदारता, परोपकार, दया तथा सत्यता आदि गुणों
को माँ से ही सीखा।
(iv) महान
देशभक्त देशवासियों की दुर्दशा देखकर गाँधीजी का हृदय व्यथित हो जाता है और वे
जीवन की अन्तिम साँस तक देश-सेवा करने का व्रत लेते हैं- सन्तानें इनकी कोटि-कोटि
हैं मेरे लिए सगे भाई आबरू और इज्जत इनकी रखने की आज कसम खाई ।। सचमुच महात्मा
गाँधी स्वयं का सुख-वैभव त्यागकर सारा जीवन देश सेवा में अर्पित कर देते हैं।
(ii) 'मुक्तिदूत' के चतुर्थ सर्ग का कथानक
अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर - इस सर्ग में गाँधीजी द्वारा चलाये गये
विभिन्न आन्दोलनों का वर्णन किया गया है। अगस्त 1920 ई० में गाँधीजी ने असहयोग
आन्दोलन प्रारम्भ किया। जनता ने विदेशी सामान का बहिष्कार किया, अंग्रेजों द्वारा
दी गयी उपाधियों को लौटा दिया तथा नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया। इस असहयोग
आन्दोलन को देखकर अंग्रेजों को बड़ी निराशा हुई। गाँधीजी ने 'साइमन कमीशन' का भी
विरोध किया। भारतीयों के द्वारा किये गये इस तिरस्कार के परिणामस्वरूप अंग्रेज
हिंसा पर उतर आये। इसी आन्दोलन में पंजाब केशरी लाला लाजपतराय भी सम्मिलित हो गये।
सम्पूर्ण देश में हिंसक क्रान्ति प्रारम्भ हो गयी। गाँधीजी ने भारतीय जनता को
समझाया और उसे अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उन्होंने नमक कानून तोड़ने
के लिए डाण्डी यात्रा की। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद सम्पूर्ण देश में
आन्दोलन छिड़ गया। कुछ दिनों बाद गाँधीजी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन
प्रारम्भ किया। उनका यह नारा सम्पूर्ण देश में गूंजने लगा। इस आन्दोलन में विदेशी
वस्तुओं की होली जलायी गयी, थाने में आग लगा दी गई, रेलवे लाइनों को उखाड़ फेंका
गया और सड़कों तथा पुलों को तोड़ दिया गया। आन्दोलनकारियों द्वारा सम्पूर्ण शासन
व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया गया। इस समय अंग्रेजों का दमन चक्र भी सीमा को
पार कर गया था। गाँधीजी ने अनशन प्रारम्भ कर दिया। इसी समय कारावास में बन्द उनकी
धर्मपत्नी की मृत्यु हो गयी।
(ख)
(i) 'ज्योति जवाहर खण्डकाव्य के आधार पर
जवाहर लाल नेहरू की चारित्रिक विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- 'ज्योति जवाहर' के खण्डकाव्य नायक पं०
जवाहरलाल नेहरू हैं। नेहरू जी को खण्डकाव्य में युगावतार लोकनायक के रूप है। नेहरू
जी की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं में प्रस्तुत किया गया है। नेहरू जी की चारित्रिक
विशेषताएं निम्न है-
1.
सर्वप्रिय लोकनायक पं० जवाहरलाल को समस्त भारतीय जनता ने अथाह स्नेह दिया। कवि ने
नेहरू जी को जन-जन का नायक और युग अवतारी के रूप में माना है। लोकनायक वही हो सकता
है जो सम्पूर्ण जनता के सुख-दुःखों की अनुभूति अपने हृदय में कर सके। भारतवर्ष के
प्रत्येक प्रान्त ने अपना कुछ-न-कुछ उन पर किया है। दिल्ली, गुजरात, उत्तर प्रदेश,
महाराष्ट्र, बंगाल आदि सभी प्रदेशों के कोने-कोने में लोकनायक नेहरूजी का व्यक्तित्व
व्याप्त है।
2.
विश्व शान्ति के पक्षपोषक नेहरूजी जीवन भर विश्व शान्ति की स्थापना में लगे रहे।
उनके निर्धारित निःशस्त्रीकरण, तटस्थता तथा पंचशील आदि की नीति शान्ति स्थापना के
प्रयासों के ही उदाहरण हैं, जिनके लिए वे अन्त तक प्रयास करते रहे।
3.
नवराष्ट्र के निर्माता भारतवर्ष को स्वतन्त्रता दिलाने के पश्चात् नये राष्ट्र का
निर्माण करने वालों में पं० जवाहरलाल नेहरू का नाम अग्रगण्य है। देश के उत्थान और
विकास करने के लिए उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं को आरंभ किया। वे जाति-बन्धनों से
मुक्त भारत को देखना चाहते थे। नेहरू जी सभी धर्मों की एकता में विश्वास रखकर देश
को निरन्तर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर रखना चाहते थे। वे प्रगतिशील विचारों के धनी
थे।
4.
देशभक्त और स्वाधीनता सेनानी प्रस्तुत खण्डकाव्य में पं० जवाहरलाल नेहरू को कवि ने
उत्कृष्ट देशभक्त, अपराजेय स्वाधीनता सेनानी के रूप में चित्रित किया है।
महाराष्ट्र इसीलिए इस महापुरुष को आजादी की चिनगारी और शिवाजी की तलवार सौंपता है।
अत्याचारी के विरुद्ध तलवार उठाना हिंसा नहीं अहिंसा है, ऐसा उनका विचार है।
(ii) 'ज्योति- जवाहर खण्डकाव्य का कथासार
संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- ज्योति जवाहर का सारांश-खण्ड-काव्य के
आरम्भ में कवि विषय प्रवेश के अन्तर्गत सर्वप्रथम पं० जवाहरलाल नेहरू के निधन पर
उन्हें सह अस्तिव के सरगम, अहिंसा के अनूठे छन्द, मानवता के संगम, जागरण के काव्य,
युग की प्रेरणा, विधाता के अछूते ग्रन्थ, मनु के मन्त्र आदि अनेक विशेषणों से
सम्बोधित करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
कथा
का प्रारम्भ पं० नेहरू अलौकिक दिव्य पुरुष के अवतार से होता है जिसमें सूर्य की
ज्योति है, चाँद की सुन्दरता है, हिमालय का स्वाभिमान है, सागर की गम्भीरता है, हवा
की अबाध गति है, धरती-सा धैर्य है। भारत की मिट्टी में उनका पालन-पोषण हुआ। उनकी
जन्मभूमि गंगा-जमुना का संगम इलाहाबाद है। पूज्य बापू से कर्मयोग की प्रेरणा मिलती
है। नेहरू और बापू का मिलन राम वशिष्ठ अथवा मोहन और युधिष्ठिर के समान है, यथा
उसका
आशीष और तेरा, नत मस्तक ही करता प्रणाम ।
यों
लगा कि जैसे गुरु वशिष्ठ, के चरणों पर हों झुके राम ।।
अथवा
मोहन के चरणों पर हो झुका युधिष्ठिर का माथा ।
या
खोज रहा हो फिर भारत अपनी खोयी गौरव गाथा ।।
पं०
नेहरू के अखण्ड ज्योति के रूप में इस धरा धाम पर अवतीर्ण होने पर कवि कल्पना के
अनुसार भारत का खण्ड-खण्ड अपने अखण्ड दिव्य रत्नों को नायक पर न्योछावर करने को आतुर हो
उठता है। अहिंसा के लिए अग्रदूत को शिवाजी की तलवार सौंपने की योजना महाराष्ट्र
बनाता है, तो उसे शान्ति और अहिंसा के युग के लिए अनुपयुक्त बतलाया जाता है, इस पर
महाराष्ट्र हिंसा और अहिंसा को परिभाषित करता है-
अत्याचारी
के चरणों पर, झुक जाना भारी हिंसा है।
पापी
का शीश कुचल देना, जो हिंसा नहीं अहिंसा है।
तदनन्तर अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान परिवेश
में नया मोड़ देने और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित करने हेतु गुरु रामदास
की राष्ट्रीय चेतना, सन्त ज्ञानेश्वर का कर्मवाद, लोकमान्य तिलक का 'करो या मरो'
का उपदेश आदि सब कुछ लोकनायक पर न्योछावर किये जाते हैं। फिर पराधीनता के युग में
संघर्षों से टकराने की क्षमता प्रदान करके उसके लिए राजस्थान लोकनायक को मन्त्र
देता है
ले
लो मेरे जीवन की निधि, जीवन का रंग-ढंग ले लो।
यदि
पड़े जरूरत ऐसे में, तो मेरा अंग-अंग ले लो ।।
आखिर
यह सब कुछ भारत की माटी की ही तो माया है।
भीतर
से सब कुछ एक मगर, बाहर से बदली काया है।
लोकनायक पं० जवाहरलाल के सार्वभौमिक व्यक्तित्व
के निर्माण में दक्षिण भारत के जगद्गुरु शंकराचार्य, रामानुज आदि का व्यापक प्रभाव
रहा। भवभूति, कालिदास की सर्जनात्मक भावुकता ने नायक के व्यक्तित्व में साहित्य,
कला और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित की। 'अप्पर' द्वारा 'सत्याग्रह' का मन्त्र
मिला।
तदनन्तर
बिहार भगवान् बुद्ध के उपदेश, गोपा के आँसू, राहुल की तुलसी बोली, तीर्थंकर महावीर
के उपदेश, पाटलिपुत्र का गौरवमय इतिहास, मगध की ममता, बिम्बिसार की आत्मकथा,
समुद्रगुप्त का यश, पातंजलि का चिन्तन, नालन्दा का विज्ञान और कला के तत्त्व,
विद्यापति की भावुकता लेकर आनन्द भवन में कथानक संगम के राजा पं० नेहरू पर
न्योछावर करता है।
उत्तर
प्रदेश नायक को अपनी गोद में पाकर अपने को धन्य मानने लगा है। तीर्थराज प्रयाग के
संगम पर करोड़ों की भीड़ इकट्ठा हो गयी। मथुरा, वृन्दावन और अवधपुरी की गलियों में
चर्चा होने लगी कि द्वापर और त्रेता के शक्तिशाली कृष्ण और राम अब नये रूप में
अवतरित हो गये हैं। तुलसी के रामचरितमानस का सपना साकार हो गया है। सूर के गीतों
के फूल बरसने लगे हैं। सारनाथ के सपने जाग उठे हैं। मगहर से कबीर ने उपदेश दिया
हिन्दू-मुस्लिम,
मन्दिर-मस्जिद, काबा-काशी का क्या झगड़ा ?
भूल
से मोल न तू लेना, मजहब का यह रगड़ा-झगड़ा।
कुरुक्षेत्र
करवट लेकर अत्याचारी दुर्योधन के पैशाचिक उत्पातों का अन्त करने के लिए कथानक को
अर्जुन रूप से सम्बोधित करते हुए बोला कि तुम पर चर्चारूपी चक्र सुदर्शनधारी मोहन
(गाँधीजी) की कृपा है, तुम गीता के कर्मयोगी मानवता की दिव्य ज्योति और जीवन दर्शन
के लिए आओ, तुम्हारा स्वागत है।
लाल किला यमुना को अपनी क्रान्तिकारी चिनगारियों
को देखते हुए तुरन्त आनन्द भवन पहुँचने का अनुरोध करता है और यमुना कथानायक का
अभिनन्दन करने के लिए संगम पर पहुँच जाती है। इस प्रकार सभी ने भेंट के रूप में
अपनी संचित निधि को कथानायक के लिए न्योछावर कर दिया और सारा भारत पं० नेहरू में
आत्मसात् होकर सम्पूर्ण भारत का प्रतीक बन गया।
जब
लगा देखने मानचित्र, भारत न मिला तुमको पाया।
जब
देखा तुझको नयनों में, भारत का चित्र उतर आया।
(ग)
(i) 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के पूर्वाभास सर्ग
की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - दुर्योधन के द्वारा षड्यन्त्र करके
लाक्षागृह में आग लगवा देने के बाद वह पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गया कि अब पाण्डव
समाप्त हो गये हैं तो उसने और अधिक अत्याचार बढ़ा दिये, किन्तु श्रीकृष्ण की
बुद्धिमत्ता एवं सावधानी से पाण्डव लाक्षागृह से जीवित निकलकर छद्मवेश में द्रौपदी
के स्वयंवर में राजा द्रुपद के यहाँ उपस्थित हुए। राजा द्रुपद की शर्त के अनुसार,
अर्जुन ने मछली की आँख का लक्ष्यवेध किया। निराश हुए अन्य राजाओं ने अर्जुन पर
घातक प्रहार किया, किन्तु भीम और अर्जुन ने उन्हें समाप्त कर दिया। स्वयंवर में
आये हुए श्रीकृष्ण और बलराम ने उन्हें पहचान लिया तथा उनके विश्राम-गृह में रात्रि
के समय मुलाकात की। राजा द्रुपद ने द्रौपदी को अर्जुन को सौंप दिया। पाण्डव
द्रौपदी के साथ माता कुन्ती के पास पहुँचे। कुन्ती की इच्छा के अनुसार द्रौपदी का
विवाह पाँचों पाण्डवों के साथ कर दिया गया। इस अवसर पर उन्हें श्रीकृष्ण द्वारा
उपहार तथा राजा द्रुपद द्वारा बहुत दहेज दिया गया। पाण्डवों को जीवित देखकर तथा
द्रौपदी द्वारा उनका विवाह करने की घटना से दुर्योधन अधिक चिन्तित हो उठा।
हस्तिनापुर से कर्ण को साथ लेकर उसने धृतराष्ट्र से पाण्डवों का सर्वनाश करने का
परामर्श भी दिया। धृतराष्ट्र ने भीष्म पितामाह, द्रोण तथा विदुर के परामर्श पर
पाण्डवों को आधा राज्य देने का निश्चय किया। पाण्डवों को बुलाने के लिए विदुर को
भेजा गया। पाण्डवों के साथ कुन्ती, द्रौपदी तथा श्रीकृष्ण भी हस्तिनापुर आये।
हस्तिनापुर की जनता ने उन सभी का बड़ा आदर एवं स्वागत किया। दूसरे दिन धृतराष्ट्र
ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया। इसके बाद गुरुजनों से विदा लेकर पाण्डव
द्रौपदी सहित वन को चले गये।
(ii) 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर उसके
नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर – श्रीकृष्ण 'अग्रपूजा' काव्य के नायक हैं।
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सर्वप्रथम उन्हीं को अर्घ्य दिया जाता है, इसलिए इस
काव्य को 'अप्रपूजा' कहा गया है। वे आदि से अन्त तक काव्य में विद्यमान रहते हैं।
वे अनुपम सुन्दर, प्रतिभासम्पन्न, दूरदर्शी, विशाल हृदय, बलशाली एवं निर्लिप्त
कर्मयोगी हैं। इन्हीं विशेषताओं ने हमें प्रभावित किया है। उनके गुणों की अमिट छाप
हमारे मन पर पड़े बिना नहीं रहती। उनके चरित्र की प्रधान विशेषताएँ निम्नलिखित
हैं-
1.
अनुपम सुन्दर श्रीकृष्ण अतीव सुन्दर हैं। उनकी देह सुगठित है, वक्षस्थल विशाल है
और उनका वर्ण अलसी के नीले फूल के सदृश्य है। 2. तीव्र दृष्टिशाली द्रौपदी स्वयंवर
में जैसे ही साधु वेशधारी अर्जुन मत्स्य वेधन करते हैं, भगवान् कृष्ण उन्हें
तुरन्त पहचान लेते हैं।
3.
पाण्डवों के सच्चे मित्र-वे पाण्डवों के सच्चे मित्र हैं और निरन्तर उनकी सहायता
के लिए आते रहते हैं। जब पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ का राज्य दिया जाता है तो वे ही
विश्वकर्मा को बुलाकर यह आदेश देते हैं कि खाण्डवप्रस्थ देवलोक के समान सुन्दर कर
दिया जाय।
वे
ही मयदानव को युधिष्ठिर के लिए एक अलौकिक सभा भवन निर्मित करने का आदेश देते हैं।
उन्हीं की सहायता से युधिष्ठिर एक सम्पन्न राष्ट्र के स्वामी बनकर राजसूय यज्ञ
करते हैं।
4. दूरदर्शी, आत्मविश्वासी एवं नीतिज्ञ-भगवान्
कृष्ण अपार दूरदर्शी, विश्वासी एवं नीतिज्ञ हैं। युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ की योजना
उनके सामने प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण तुरन्त उन्हें बतलाते हैं कि जरासन्ध उनकी अधीनता
स्वीकार नहीं करेगा। सब विरोधी राजा मिलकर उसे शक्तिशाली बना रहे हैं, अतः
पहले उसे
पराजित करना नितान्त आवश्यक है।
(घ)
(i) 'मेवाड़ मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर
दौलत' का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर - दौलत 'मेवाड़-मुकुट' नामक खण्डकाव्य
में सहायक नायिका है। यह कवि के अनुसार कोई ऐतिहासिक पात्र न होकर केवल एक
काल्पनिक पात्र । जो महाराणा के जीवन में निखार लाने के लिए बड़ी ही महत्त्वपूर्ण
भूमिका अदा करती है। यह अकबर के राजभवन में पाली-पोसी यवन कन्या है जो वहाँ हे
छल-छद्म, ईर्ष्या-द्वेषपूर्ण वातावरण से ऊब चुकी है और परिस्थितिवश राणा के परिवार
में रहकर आत्म-सन्तोष का अनुभव कर रही है। राणा प्रताप को पिता और रानी लक्ष्मी को
माता मानकर अपने को धन्य मानती है। वह महाराणा की महानता का उल्लेख करते हुए कहती
है
सचमुच
ये कितने महान् हैं, कितने गौरवशाली
इनको
पिता बनाकर मैंने बहुत बड़ी निधि पा ली।।
उसे
बराबर राणा परिवार के कष्टों के प्रति सहानुभूति है। शत्रु कन्या होने के कारण उसे
यह भी चिन्ता लगी रहती है कि कहीं उसके कारण महाराणा को भी कष्ट न झेलने पड़े। वह
राणा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहती है
मेरे
पिता शत्रु इनके, ये प्यार मुझे करते हैं।
मुझे
खिलाकर खाते, मेरे दोष न उन धरते हैं।
राणा
प्रताप के भाई शक्तिसिंह की वह प्रेमिका भी है। वह उनके लिए ही यहाँ आयी हुई है
किन्तु शक्तिसिंह की प्रेमिका होने पर भी, वह शक्तिसिंह की कायरता, कापुरुषता की
निस्संकोच निन्दा करती है। वह राणा और शक्तिसिंह दोनों भाइयों में जमीन-आसमान का
अन्तर देखती है। वह कहती है
दौलत
अब राणा के पास आकर बहुत ही सुखी और सन्तुष्ट है। शक्तिसिंह के प्रति आकर्षित होते
हुए भी राणा से उनकी परिस्थितियों को देखकर कुछ नहीं | कहना चाहती। वह कहती है
यह
अभावमय जीवन ही अब, लगता मुझे भला है।
मैं
प्रसन्न हूँ मन से वैभव का उन्माद टला है।।
(ii) मेवाड-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर उसके
छठे सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - राणाप्रताप प्रातःकाल प्रस्थान का
प्रबन्ध करते हैं तभी एक अनुचर आकर उन्हें पत्र देता है। यह पत्र पृथ्वीराज द्वारा
भेजा गया था। पृथ्वीराज अकबर के मित्र और कवि हैं, राणाप्रताप से भेंट करते हैं और
अकबर से युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। राणाप्रताप उन्हें अपनी साधनहीनता के
विषय में बतलाते हैं, तो पृथ्वीराज भामाशाह का परिचय देते हैं और कहते हैं कि
भामाशाह आपकी प्रत्येक प्रकार की सहायता करने को तैयार हैं। पृथ्वीराज उन्हें
बुलाने के लिए राणाप्रताप की आशा भी लेते हैं।
(ङ)
(i) "जय सुभाष खण्डकाव्य के आधार पर उसके
नायक का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर- सुभाषचन्द्र बोस जय सुभाष नामक
खण्डकाव्य के नायक है। हैं। उनके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
1.
प्रखर प्रतिभासम्पत्र- नेताजी सुभाष बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के
छात्र थे।
उन्होंने मैट्रिक, एफ० ए० तथा बी० ए० की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
उनकी प्रतिभा से इनके गुरुजन बराबर प्रभावित थे, यथा
प्रखर बुद्धि से किया
उन्होंने, सब लोगों को विस्मित।
पूर्वाभास प्रगति को देकर
किया सभी को पुलकित।।
2.
स्वदेश-प्रेमी-उन्होंने अपना सारा जीवन स्वदेश प्रेम के लिए अर्पित कर दिया था।
चाहे जेल में हो, चाहे बाहर, चाहे देश हो, चाहे विदेश, हमेशा अपने देश की चिन्ता
लगी रहती थी, यथा
वह
स्वदेश सेवा में अपना थे सब समय बिताते।
राष्ट्रीयता के ही पथ पर थे निज चरण बढ़ाते ।।
3.
स्वाभिमानी- नेताजी सुभाष में स्वाभिमान की भावना कूट-कूटकर भरी थी। वे अपने देश
का अपमान कभी भी सहन नहीं कर सकते थे। छात्र जीवन में भारतवासियों को अपमानित करने
वाले प्रोफेसर आटने को चाँटे लगा, सभी को स्वाभिमानी बनने के लिए उन्होंने प्रेरित
किया था, यथा
स्वाभिमान
का परिचय सबको, हो निर्भीक दिया था।
ले
देशापमान का बदला, उत्तम कार्य किया था ।।
(ii) जय-सुभाष खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का
कथानक संक्षेप में लिखिए।
प्रथम
सर्ग (प्रारम्भिक जीवन)
इस
खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग के अन्तर्गत सुभाषचन्द्र बोस के जन्म से लेकर उनके द्वारा
शिक्षा ग्रहण करने तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। 23 जनवरी, 1897 की तिथि
इतिहास में अत्यन्त विशिष्ट है, क्योंकि इसी दिन महान् सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस
का कटक में जन्म हुआ था। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस तथा माता श्रीमती प्रभावती
देवी दोनों इस पुत्र रत्न को पाकर धन्य हुए। सुभाष के रूप में तेजस्वी और सुन्दर
बालक पाकर घर और बाहर चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सुभाष की बाल-क्रीड़ाएँ
देख-देखकर उनके नी, माता-पिता हर्षित होते रहते थे।
सुभाष
के पिता एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी माता एक धर्मपरायण,
उदार तथा साध्वी महिला थीं। सुभाष के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से
पड़ा। बचपन में उनकी माता ने उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप,
महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की
कहानियाँ सुनाकर उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार भर दिए। इस प्रकार महापुरुषों के
जीवन से उन्हें महान् बनने की प्रेरणा मिली।
सुभाष
के पिता चाहते थे कि वह पढ़-लिखकर उच्च शिक्षा ग्रहण करें। इसलिए वें पढ़ाई में भी
उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई और मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण
की। उनमें सेवा भाव भी कूट-कूटकर भरा हुआ था। एक बार जाजपुर में भयानक रोग फैला तो
उन्होंने दिन-रात रोगियों की सेवा की। मातृभूमि की सेवा के लिए ही उन्होंने सुरेश
बनर्जी के सम्पर्क में आने के बाद आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली।
स्वामी
विवेकानन्द का आख्यान सुनकर वह सत्य की खोज में मथुरा, हरिद्वार, वृन्दावन, काशी
एवं हिमालय की कन्दराओं में भी गए, लेकिन उन्हें सन्तुष्टि नहीं ए हुई और पुनः आकर
पढ़ाई करने लगे। उन्होंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम ना श्रेणी में उत्तीर्ण
की। प्रेसीडेन्सी कॉलेज में ओटन महोदय द्वारा भारतीयों के प्रति अपमानजनक शब्द
कहने के कारण सुभाष ने उसे तमाचा जड़ दिया। इस पर उन्हें • कॉलेज से निष्कासित कर
दिया गया, परन्तु उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने आई.सी.एस. की परीक्षा
उत्तीर्ण की, परन्तु इस पद को त्याग कर वे भारत लौट आए और मातृभूमि के प्रति पूर्ण
रूप से समर्पित हो गए।
(च)
(i) 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के प्रथम
सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - भारतवर्ष की स्वतन्त्रता से पूर्व यहाँ
ब्रिटिश हुकूमत थी, अंग्रेजों का साम्राज्य था। भारतीय लोगों पर अंग्रेज तरह-तरह
के अत्याचार कर रहे थे। परिणाम यह हुआ था कि अनेक भारतीय उत्साही वीरों ने
स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया। गाँधीजी ने सत्य, अहिंसा तथा स्वदेशी का सन्देश
दिया। अंग्रेज सरकार देशभक्तों पर विभिन्न प्रकार के जुल्म कर रही थी। एक तरफ
अंग्रेजों के द्वारा किए गए अत्याचार बढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ वीरभक्तों के हृदय
में स्वतन्त्रता की चिनगारी सुलग रही थी। उसी वातावरण में चन्द्रशेखर आजाद ने आकर
बलिदान का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
सन्
1921 में जब ब्रिटिश युवराज भारत आए तो महात्मा गाँधी ने असहयोग का नारा दिया। देश
के कोने-कोने से कर्मचारी अपने कार्यालय, विद्यार्थी अपने विद्यालय तथा मजदूर अपने
कारखाने छोड़कर निकल पड़े। अंग्रेजों का दमन चक्र बढ़ गया। 15 वर्ष का बालक
चन्द्रशेखर भी बन्दी बना लिया गया। जब उन्हें | मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया
और मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा, तो उत्तर मिला आजाद। पिता का नाम पूछा तो चन्द्रशेखर
ने कहा-स्वाधीन| निवास स्थान पूछा गया तो उसने कहा- जेलखाना। चन्द्रशेखर को सोलह
बेतों का दण्ड दे दिया गया। बालक बेतों की मार खाकर भी भारत माता की जय बोलता रहा।
(ii) मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य की कौन सी
घटना आपको सर्वाधिक प्रभावित करती है? संक्षेप में बताइये।
उत्तर – मातृभूमि खंडकाव्य में उस समय की घटना जब 15 वर्ष का बालक चन्द्रशेखर भी बन्दी बना लिया गया। जब उन्हें |
मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा, तो उत्तर मिला आजाद।
पिता का नाम पूछा तो चन्द्रशेखर ने कहा-स्वाधीन| निवास स्थान पूछा गया तो उसने
कहा- जेलखाना। चन्द्रशेखर को सोलह बेतों का दण्ड दे दिया गया। बालक बेतों की मार
खाकर भी भारत माता की जय बोलता रहा।
यह मुझे सर्वाधिक प्रभावित करती है।
(छ)
(i) कर्ण' खण्डकाव्य के द्यूत सभा में
'द्रोपदी' सर्ग का सारांश संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - महाराज द्रुपद ने अपनी पुत्री द्रौपदी का
स्वयंवर करने के लिए देश भर के राजाओं को आमन्त्रित किया। उस स्वयंवर में ब्राह्मण
वेशधारी अर्जुन ने लक्ष्य को वेध दिया और द्रौपदी का वरण किया। द्रौपदी पाँचों
पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा
राज्य भी प्राप्त हो गया। कुछ समय के बाद पाण्डवों ने किया। पाण्डवों का वैभव
देखने के लिए दुर्योधन भी वहाँ आया। राजभवन राजसूय यज्ञ में भ्रमवश जहाँ जल भरा
हुआ था, दुर्योधन ने उसे स्थलभाग समझा और जल में गिर पड़ा। द्रौपदी उसे देखकर हँस
पड़ी और कहा कि अन्धों की अन्धी ही सन्तान होती है। दुर्योधन इस अपमान से इतना आहत
हुआ कि उसने मन-ही-मन द्रौपदी से इस अपमान का बदला लेने का प्रण कर लिया। अपने
मामा शकुनि से मिलकर दुर्योधन ने पाण्डवों के साथ कपट द्यूत क्रीड़ा की योजना
बनायी। इस कपट क्रीड़ा में मामा शकुनि की चाल से दुर्योधन ने युधिष्ठिर को हरा
दिया। अन्त में युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया। दुर्भाग्य से वे
द्रौपदी को भी हार बैठे। दुर्योधन की आज्ञा से दुःशासन द्रौपदी के बाल पकड़कर
घसीटता हुआ राजसभा में ले आया। द्रौपदी ने बहुत प्रार्थना की किन्तु दुःशासन नहीं
माना। कर्ण ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए दुःशासन को और अधिक प्रेरित किया
“दुःशासन मत ठहर,
वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे ।
वह पुकार ले रो
रोकर, चाहे वह जिसे पुकारे।।”
(ii) कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण
का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर-
श्रीकृष्ण के
चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1.
कूटनीतिज्ञ श्रीकृष्ण का 'कर्ण' खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं में विशेष हाथ है। वे
पाण्डवों के परम हितैषी हैं, क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चलते
हैं। कृष्ण हर पल उनका ध्यान रखते हैं, समय-समय पर उन्हें सचेत करते हैं। शत्रु को
नीचा दिखाना, साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति द्वारा किसी भी प्रकार उसे अपने वश में
करना वे भली प्रकार जानते हैं। कर्ण की शक्ति को जानकर उसे पाण्डवों के पक्ष में
करने का प्रयास करते हैं, वहीं दुर्योधन के अवगुणों को बताने में भेद नीति अपनाते
हैं। वे कर्ण से कहते हैं
"दुर्योधन
का साथ न दो, वह रणोन्मत्त पागल है।
द्वेष,
दम्भ से भरा हुआ, अति कुटिल और चंचल है।”
2.
परिस्थितियों के मर्मज्ञ श्रीकृष्ण तो भगवान् हैं, वे त्रिकालदर्शी हैं,
भविष्यद्रष्टा हैं तथा परिस्थितियों को भली प्रकार समझाने वाले हैं। वे भली भाँति
जानते हैं कि धर्मयुद्ध में कर्ण को कोई मार नहीं सकता। तभी तो वे समय आने पर
अर्जुन को कर्ण का वध करने का संकेत देते हैं। वे कहते हैं “बाण चला दो, चूक गये
तो लुटी सुकीर्ति संजोई।”
2.
पाण्डवों के रक्षक-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे हर
परिस्थितियों में पाण्डवों की रक्षा करते क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के
मार्ग पर चल रहे हैं। सत्य, निष्ठा और न्याय की स्थापना करने के लिए ही तो पृथ्वी
पर उनका अवतार हुआ है। वे कुन्ती को समझाकर कर्ण के पास भेजते हैं। युद्ध में वे
घटोत्कच को प्रकट करते और अर्जुन के हाथ से कर्ण का वध करवाते हैं।
(ज)
(i) 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के आदर्श चरण सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
उत्तर - चौथे सर्ग में भरत गुरु वशिष्ठ के यहाँ
पहुँचते हैं। सभी सर्ग में सच्चे अर्थ में भरत की कर्मवीरता का निखार हुआ है। जब
गुरु वशिष्ठ और मन्त्री सुमन्त उन्हें राजसिंहासन पर बैठने का आदेश देते हैं तो
भरत राम को वन से लाने के अपने संकल्प और आत्मविश्वास को व्यक्त करते हैं।
भरत
का विचार सभी को पसन्द आता है। सभी लोग भरत के साथ राम को मनाने के लिए वन को
प्रस्थान करते हैं। पहले तो भरत पैदल ही चलने को आगे-आगे तैयार होते हैं बाद में
जब माताएँ भी उतरकर पैदल चलने को तैयार होती हैं तो उनके कष्ट और आग्रह का विचार
कर वे भी रथ पर बैठ जाते हैं।
(ii) कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के आधार पर राम
का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर - कवि लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' द्वारा
रचित खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के नायक भरत हैं, परन्तु फिर भी राम के कारण ही भरत
के चरित्र का विकास होने से राम भी महत्त्वपूर्ण पात्र बन गए हैं। यद्यपि राम
अन्तिम सर्ग में ही प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं परन्तु सम्पूर्ण खण्डकाव्य
में उनके व्यक्तित्व की पर्याप्त चर्चा हुई है। राम की चारित्रिक विशेषताएँ निम्न
हैं
1.
उदात्त गुणों से सम्पन्न एवं रघुकुल का गौरव राम समस्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न
है। वह शक्ति, शील और सौन्दर्य के सागर हैं। उनके हृदय में दया, करुणा, ममता,
सहनशीलता तथा कल्याणकारी भावनाओं का निवास है। उनके शक्ति, साहस और पौरुष के समक्ष
दानव-मानव कहीं ठहर नहीं पाते। अपने इन्हीं गुणों के कारण वह रघुकुल के आदर्श हैं
तथा सभी को प्यारे हैं। इन्हीं गुणों के कारण कैकेयी राम को अपने सभी पुत्रों में
श्रेष्ठ मानती हैं। अतः उसने जन-सेवा के लिए राम को ही वन भेजा।
2.
दृढ़तापूर्वक कर्त्तव्यपालन करने वाले राम दृढ़ निश्चयी हैं और कभी भी कर्त्तव्य
के पथ से पीछे नहीं हटते। कैकेयी के समझाने पर वह सहर्ष वन जाने के लिए तैयार हो
जाते हैं। बाद में भरत उन्हें अयोध्या वापस लौटने के लिए कहते हैं तो वह
दृढतापूर्वक अपने प्रण पर डटे रहते हैं। उन्हें अपने पिता के वचनों की कुल की
मर्यादा की तथा माता की शिक्षा का स्मरण है। अतः वह दृढ़तापूर्वक कर्त्तव्य पथ पर
चलते रहते हैं।
3.
भरत के प्रति अगाध स्नेह जिस प्रकार भरत की भक्ति राम के प्रति अटूट है, उसी प्रकार
राम के मन में भी भरत के प्रति अगाध स्नेह है। जब भरत सभी को साथ लेकर सेना सहित
चित्रकूट पर आते हैं तो लक्ष्मण को भरत की निष्ठा पर सन्देह होता है, परन्तु राम
को तनिक भी सन्देह नहीं हुआ, क्योंकि वह भरत को अच्छी प्रकार समझते थे और भरत के
लिए वह अपयश भी स्वीकार कर सकते थे। वह भरत की प्रेम-धारा में बहते हुए कहते हैं
“बोले-
जो भी कहो वही मैं आज करूँगा,
तुम कह दो तो अयश-सिन्धु में कूद पहूँगा।"
इस
प्रकार 'कर्मवीर भरत' में राम के जाने-पहचाने एवं सर्वमान्य स्वरूप मर्यादा
पुरुषोत्तम का चित्रण हुआ है।
(झ)
(i) तुमुल खण्डकाव्य के राम-मिलाप और
सौमित्र का उपचार सर्ग की कथा लिखिए।
उत्तर - लक्ष्मण की ऐसी दशा देखकर राम विलाप
करने लगे और कहने लगे कि “हे लक्ष्मण! तुम्हारी ऐसी दशा से मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। हे
धनुर्धर, तुम धनुष हाथ में लेकर फिर उठो, मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह
सकता।" राम की ऐसी करुण अवस्था को देखकर हनुमान जी को सुषेण वैद्य को लाने का आदेश दिया। हनुमान जी क्षण भर में ही
सुषेण वैद्य को ले आये। सुषेण वैद्य ने कहा कि “संजीवनी बूटी के बिना लक्ष्मण की चिकित्सा नहीं हो
सकती।" संजीवनी बूटी लाने का कार्य भी हनुमान जी ने ही किया। संजीवनी बूटी
के उपयोग
से लक्ष्मण की मूर्च्छा समाप्त हो गयी तथा पुनः वानर सेना में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।
(ii) 'तुमुल' खण्डकाव्य के आधार पर 'मेघनाद
का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर -
मेघनाद
'तुमुल' खण्डकाव्य का प्रमुख प्रतिनायक है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ
निम्नलिखित हैं 1. आकर्षक व्यक्तित्व नायक लक्ष्मण की भाँति ही मेघनाद भी आकर्षक •
व्यक्तित्व का स्वामी है। उसके तेजस्वी स्वरूप को देखकर सभी की दृष्टि उस पर ठहर जाती थी।
"जो
वीर थे बैठे वहाँ वे, टक-टक लखने लगे।।”
रणभूमि में उसके उन्नत ललाट, ऊँचे भाल, नीले
गात, चन्द्र जैसी शोभा लम्बी-चौड़ी छाती, लम्बे पुष्ट बाहु देखकर लक्ष्मण भी उसके
सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं और कह उठते हैं
“पाता
होगा मोद माँ का कलेजा, तेरे जैसे पुत्र की देख शोभा।
पाता
होगा सर्वदा हर्ष जी में, तेरा नामी विक्रमी जन्मदाता।।”
2. परम शक्तिशाली एवं शूरवीर मेघनाद पराक्रम का
अतुल्य स्वामी है, इस बात में कोई सन्देह नहीं। राम, लक्ष्मण एवं अन्य वीर भी उसके
पराक्रम को स्वीकार करते हैं। उसने युद्ध में इन्द्र के पुत्र जयन्त तथा स्वयं
इन्द्र को भी परास्त किया था। इसलिए उसे 'इन्द्रजीत' का उपनाम भी मिला था। रावण को
उसकी शक्ति पर अपने समान ही विश्वास है। उसकी शक्तियों का अन्त नहीं है। जब वह
युद्ध करता है तो देवता भी काँपने लगते हैं और रणधीर कहलाने वाले वीर भी धराशायी
हो जाते हैं। वह युद्ध एक बार लक्ष्मण पर हावी होकर उन्हें मूच्छित भी कर देता है।
3. अतिआत्मविश्वासी एवं अभिमानी मेघनाद
को अपने बल, शौर्य तथा शक्ति करने में सफल पर अत्यधिक विश्वास है। वह प्रतिज्ञा
करता है कि यदि विजयी होकर नह लौटा तो फिर कभी युद्ध नहीं करेगा। वह अपने प्रण को
पूरा भी होता है, परन्तु वह अभिमानी भी है। लक्ष्मण द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर व
विनम्रता का नहीं अपितु अहंकार का प्रदर्शन करता है।
“जो-जो कहा उसको उन्होंने ध्यान से तो सुन लिया।
पर गर्व से घननाद, सौमित्रि को लख हँस दिया।।
4.
परम पितृभक्त भले ही मेघनाद राक्षस-राज रावण का पुत्र है, परन्तु राक्षा होने पर
भी वह उच्च गुणों से सम्पन्न है। वह परम पितृभक्त है। वह साम आने पर रावण के चरण
स्पर्श करता है। वह अपने पिता को चिन्तित देखक व्याकुल उठता है। वह अपने पिता की
सन्तुष्टि के लिए भीषण रण करने। भी नहीं घबराता । वह अपने पिता को दिए गए वचन को
पूर्ण करने के लि पूरी तरह प्रतिबद्ध है। वह लक्ष्मण से कहता है
'अतएव मानूँगा नहीं, सन्नद्ध अब हो
जाइए।
हे वीरवर! मेरी विजय से, बद्ध अब हो जाइए।"
5. तामसी वृत्ति वाला राक्षस-वंशी होने
के कारण वह तामसी वृत्ति वाला भी। इसलिए पुन: युद्ध से पूर्व वह तामसी-यज्ञ करता
है। यज्ञ सम्पन्न करने के उसे पराजित करना कठिन था। इस यज्ञ को पूरा करने हेतु वह
शत्रु लक्ष्मण प्रहारों को भी काफी देर तक झेलता रहता है। इस प्रकार कवि ने मेघनाद
चरित्र के सभी पक्षों को उजागर किया है। वह परम उत्साही, दृढ़ प्रति शौर्यशाली तथा
पितृभक्त है, जिसके कारण वह प्रतिनायक होते हुए भी ना लक्ष्मण पर हावी होता है और
लक्ष्मण द्वारा मारे जाने पर सहानुभूति भी पाता।